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Hindi News वायरल न्‍यूज भीषण गर्मी में भी नहीं सूखता यह पेड़, पूरे साल रहता है हरा-भरा, जड़ से लेकर पत्ता तक, सब है बेहद उपयोगी

भीषण गर्मी में भी नहीं सूखता यह पेड़, पूरे साल रहता है हरा-भरा, जड़ से लेकर पत्ता तक, सब है बेहद उपयोगी

दुनिया में एक पेड़ ऐसा भी है, जिसके पत्ते बारहों महीने हरे-भरे रहते हैं। चाहे कितनी भी भीषण गर्मी क्यों ना पड़ जाएं या फिर अकाल ही पड़ जाए, लेकिन ये पेड़ कभी भी नहीं सूखता।

खेजड़ी का पेड़- India TV Hindi Image Source : SOCIAL MEDIA खेजड़ी का पेड़

साल में कभी ना कभी सारे वृक्ष सूख जाते है। उनके पत्ते भी सूखकर झड़ने लगते हैं। लेकिन एक पेड़ ऐसा भी है जो पूरे साल में कभी नहीं सूखता। बारहों महीने इसके हरे-भरे पत्ते इसकी डाल पर लगे रहते हैं। जी हां, हम बात कर रहे हैं खेजड़ी के पेड़ की। जिसे शमी के पेड़ के नाम से भी जाना जाता है। विभिन्न इलाकों में इस पेड़ के अलग-अलग नाम हैं। जैसे - उत्तर प्रदेश में इसे छोंकरा का पेड़ कहते हैं। वहीं, गुजरात में शमी या सुमरी का पेड़ कहा जाता है। जबकि राजस्थान में इसे खेजड़ी, जांट/जांटी या सांगरी का पेड़ कहते हैं। संयुक्त अरब अमीरात में इस पेड़ को घफ़ के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजी में इसे प्रोसोपिस सिनेरेरिया कहते हैं। 

रेगिस्तान में रह रहे लोगों के लिए जीवनदायी है ये पेड़

खेजड़ी के पेड़ ज्यादातर थार के मरुस्थल एवं अन्य रेतीले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। रेगिस्तान में रहने वाले लोगों के लिए यह पेड़ एक जीवनदायी पेड़ है। धरती को पिघला देने वाली गर्मी में भी ये पेड़ रेगिस्तान के लोगों और वहां के जानवरों को धूप से बचाता है और ठंडी छांव देता है। खेजड़ी का पेड़ भीषण गर्मी में, यहां तक की जेठ के महीने में भी हरा-भरा रहता है। जब रेगिस्तान में भीषण अकाल पड़ता है और खाने के लिए कुछ नहीं बचता तब भी ये पेड़ जानवरों के खाने के लिए चारा देता है, जो लूंग कहलाता है। लोग इसके फूल और फल को खाते हैं। इसका फूल मींझर कहलाता है। इसके फल को सांगरी कहते हैं, जिसकी सब्जी बनाई जाती है। इस पेड़ के फल के सूखने के बाद उसे खोखा बोलते हैं। जो सूखा मेवा होता है।

Image Source : Social Mediaखेजड़ी के पेड़ के फल की सब्जी

इस पेड़ की लकड़ियां होती हैं काफी मजबूत

इस पेड़ की लकड़ी काफी मजबूत होती है, जो लोगों के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है। इस पेड़ के जड़ से हल बनाए जाते हैं। अकाल के समय रेगिस्तान के लोगों और वहां के जानवरों के लिए यह पेड़ एकमात्र सहारा होता है। इस पेड़ को लेकर यह भी कहा जाता है कि सन 1899 में भीषण अकाल पड़ा था, जिसे छपनिया अकाल भी कहते हैं। उस समय रेगिस्तान के लोग इस पेड़ के तनों के छिलके, फल और फूल खाकर जिंदा रहे थे। इस पेड़ की एक और खासियत है, वह ये कि इसके नीचे अनाज की पैदावार ज्यादा होती है।

इन पेड़ों को बचाने के लिए 363 लोगों ने अपनी जान गंवाई

रेगिस्तान में रहने वाले लोगों के लिए यह पेड़ इतना महत्व रखता है कि लोग इस पेड़ को बचाने के लिए अपनी गर्दन कटा देते हैं लेकिन इस पेड़ को नहीं कटने देते। इससे जुड़ी एक वास्तविक घटना पर आधारित कहानी भी बेहद प्रचलित है। ये कहानी है एक महिला और उसके परिवार के बलिदान की, जिन्होंने इस पेड़ को बचाने के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। दरअसल, सन् 1730 ई. में, राजस्थान में जोधपुर साम्राज्य के महाराजा अभय सिंह जी ने अपने नए महल के लिए रास्ता बनाने के लिए इन पेड़ों को काटने का आदेश दिया था। लेकिन जोधपुर के पास ही खेजड़ली गांव में रहने वाली अमृता देवी और उनकी तीन जवान बेटियों और उनके पति ने उन खेजड़ी के पेड़ों की रक्षा के लिए अपनी जान दे दी। उनके इस बलिदान को देखते हुए गांव के लोग उग्र हो गए और उन पेड़ों को बचाने के लिए महाराजा का घोर विरोध करने लगे। लेकिन राजा ने उनकी एक नहीं सुनी और अपने आदेश को कायम रखा। आखिरकार इन पेड़ों को बचाने की कोशिश में गांव के 363 लोग मारे गए।

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