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Train के ड्राइवर को क्यों दी जाती है यह लोहे की रिंग? जानें ट्रेन में आखिर इसका क्या है काम

भारत में अभी भी कुछ जगहों पर ट्रेनों के संचालन में टोकन एक्सचेंज सिस्टम लागू है। आपको बता दें कि आज से करीब 30-40 साल पहले अधिकांश ट्रेनों को टोकन एक्सचेंज सिस्टम के जरिए ही संचालित किया जाता था। आइए आपको बताते हैं कि आखिर इसकी उपयोगिता क्या है और यह कैसे काम करता है।

Indian Railway, Railway Station, GK, Indian railway, railway, train, token, token exchange, what is - India TV Hindi Image Source : फाइल फोटो आज भी कई जगहों पर इसी सिस्टम पर ट्रेनों का संचालन किया जाता है।

Indian Railway Token Exchange System: भारत में रेलवे यात्रा करने का सबसे सस्ता और बड़ा साधन है। हर दिन लाखो करोड़ों लोग ट्रेन में सफर करते हैं। यात्रियों की यात्रा को सुविधा जनक बनाने के लिए रेलवे लगातार प्रयासरत है। यही वजह है कि इंडियन रेलवे लगातार अपने आप को एडवांस बना रही है। आजादी के बाद से अब तक रेलवे में कई बड़े परिवर्तन आ चुके हैं। लेकिन, देश की कुछ ऐसी जगहें हैं जहां पर आज भी अंग्रेजों के जमाने की तरीके अपनाए जा रहे हैं। ऐसा ही एक तरीका है टोकन एक्सचेंज। 

आपको बता दें कि भारत में कुछ जगहों पर आज भी अंग्रेजो के जमाने में रेलवे में इस्तेमाल किया जाने वाला टोकन एक्सजें सिस्टम चलता है। वैसे तो रेलवे में धीरे-धीरे टोकन एक्सचेंज सिस्टम खत्म हो रहा है लेकिन कुछ जगहों पर अभी भी इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। इस सिस्टम में ट्रेन ड्राइवर को एक लोहे की रिंग दी जाती है और यह रिंग ट्रेन के चलने और रुकने के लिए काफी जरूरी होती है। आइए आपको बताते हैं कि आखिर इंडियन रेलवे में टोकन एक्सचेंज टेक्नोलॉजी क्या है ?

ट्रेन के संचालन में जरूरी है लोहे का छल्ला

अगर आप नहीं जानते तो बता दें कि इंडियन रेलवे में टोकन एक्सचेंज यानी ट्रेन ड्राइवर को लोहे का छल्ला देने का एक मकसद ट्रेन को उसके डेस्टिनेशन तक सुरक्षित पहुंचाना था। मतलब इस लोहे के छल्ले का काम ट्रेनों के सुरक्षित संचालन से जुड़ा था। पुराने जमाने में ट्रैक सर्किट नहीं होता था इसलिए टोकन एक्सचेंज के जरिए ही ट्रेन अपने डेस्टिनेशन तक पहुंचती थीं। 

अगर आज से करीब 50 साल पहले की बात करें तो देश में कई जगहों पर रेलवे ट्रैक काफी छोटे थे। कुछ जगहों पर तो सिंगल ट्रैक ही थे जिसमें आने और जाने वाली दोनों ही ट्रेन चलती थीं। ऐसे में टोकन एक्सचेंज ही वह तरीका था जिससे दो ट्रेनों को भिड़ने से बचाया जाता था। 

ऐसे काम करता है टोकन एक्सचेंज सिस्टम

टोकन एक्सचेंज टेक्नोलॉजी में एक बड़े से लोहे के छल्ले का उपयोग किया जाता है। जब ट्रैक पर गाड़ी चलती थी तो स्टेशन मास्टर ट्रेन के ड्राइवर को लोहे का छल्ला दे देता था। लोहे की रिंग मिलने का मतलब था कि जिस ट्रैक पर गाड़ी चल रही है वह लाइन पूरी तरह से क्लीयर है। जब ट्रेन अपने डेस्टिनेशन पर पहुंचती थी तो लोको पायलट यानी ड्राइवर उस लोहे की रिंग को जमा कर देता था और फिर वही रिंग उस ट्रैक पर चलने वाली दूसरी गाड़ी के ड्राइवर को दे दी जाती थी। 

बता दें कि टोकन एक्सचेंज में लोहे के छल्ले में लोहे में एक बॉल लगी होती है। इस बॉल को टेबलेट कहा जाता है। स्टेशन मास्टर लोको पायलट से टोकन लेकर उस पर लगे टोकन बॉल को स्टेशन पर लगे नेल बॉल मशीन पर फिट करता है। इससे अगले स्टेशन तक रूट क्लीयर माना जाता है। अगर किसी वजह से ट्रेन स्टेशन पर नहीं पहुंचती तो इससे पिछले स्टेशन पर लगी नेल बॉल मशीन अनलॉक नहीं होगी और उस स्टेशन से कोई भी ट्रेन उस ट्रैक पर नहीं आ पाएगी। 

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