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सस्ती चीनी लड़ियों ने छीन ली दीया बनाने वाले कुम्हारों की खुशियां

नई दिल्ली: कहा जाता है कि श्रीराम के अयोध्या वापस आने पर वहां के लोगों ने घी के दीये जलाकर खुशियां मनाई थीं। दीवाली का त्योहार भारत के ग़रीब कुम्हारों के घर हर साल खुशियों

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नई दिल्ली: कहा जाता है कि श्रीराम के अयोध्या वापस आने पर वहां के लोगों ने घी के दीये जलाकर खुशियां मनाई थीं। दीवाली का त्योहार भारत के ग़रीब कुम्हारों के घर हर साल खुशियों लेकर आता रहा है। कई पीढ़ियों से ऐसा ही चल रहा था, लेकिन अब सस्ते चीनी सामान ने उनकी खुशियों में भी सेंध लगा दी है। अब लोग दीवाली पर घरों को दीयों से जगमगाने के बजाय चीनी लड़ियों से चमचमाने में यकीन रखने लगे हैं। यह एक और उदाहरण है कि हमारी जिंदगी को सुविधाओं से भरने वाली टेक्नोलॉजी कैसे इनसान की मेहनत पर निर्भर व्यवसायों को धीरे-धीरे निगल रही है औऱ ऐसे व्यवसायों में काम करने वाले लोगों की खुशियों को छीन रही है।

दीयों की बिक्री में पिछले कुछ वर्षों में आई भारी गिरावट

टेराकोटा कला के लिए 1990 में राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके दिल्ली की सबसे बड़ी कुम्हारों की बस्ती 'कुम्हार ग्राम' के प्रमुख हरिकिशन ने आईएएनएस को बताया, "दीयों की बिक्री में काफी गिरावट आई है और हमारी जिंदगी में अंधेरा छा गया है।" एक अन्य कुम्हार कृष्णा ने भी कुम्हारों की स्थिति के बारे में यही कहा, "पहले हमें दीवाली पर आराम करने का भी मौका नहीं मिलता था, लेकिन अब हम अपने बनाए आधे उत्पाद भी नहीं बेच पाते।"

सस्ती चीनी लड़ियों ने दीयों की रोशनी को किया फीका

"चीनी उत्पादों की मांग के कारण दीवाली का पारंपरिक आकर्षण समाप्त हो गया है। लोग पारंपरिक दीयों की जगह अपने घरों को चीनी लड़ियों या जेली कैंडल्स से सजाना पसंद करते हैं।" हरिकिशन के मुताबिक, "चीनी उत्पाद हमारे व्यवसाय को डुबो रहे हैं। हर साल बिक्री में कम से कम 30 फीसदी की गिरावट आ रही है।"

खरीददारी के लिए मॉल्स और सुपरमार्केट बने पहली पसंद

कृष्णा ने आईएएनएस को बताया, "अब लोग खरीदारी के लिए मॉल्स और सुपरमार्केटों का रुख करते हैं और वहां से उन्हें महंगी चीजें खरीदने में भी आपत्ति नहीं है। अब हमें बेहद कम ग्राहक मिलते हैं, हम अपना गुजारा कैसे करें।" अन्य कुम्हारों ने भी यही कहा कि अब तैयार उत्पाद भी बिक नहीं पाते, पांच साल पहले ऐसा नहीं था। एक समय था जब भारतीय परिवार केवल सादे मिट्टी के दीयों की ही खरीदारी करते थे, लेकिन अब केवल सजावटी दीयों और लैंप्स की ही मांग है।

अब कुम्हारों को तलाश है रोज़गार के अन्य साधन की

हैरानी की बात नहीं है कि बदलती परिस्थिति के कारण कई कुम्हार पारंपरिक रोजगार छोड़कर अब धीरे-धीरे अन्य रोजगार तलाश रहे हैं। मालवीय नगर में पिछले 30 वर्ष से मिट्टी के उत्पाद बेच रहीं एक महिला ने शिकायती लहजे में कहा, "वर्षो पहले हमारी दुकानों में दीवाली के दौरान काफी भीड़ होती थी, लेकिन अब हम ग्राहकों का इंतजार करते रह जाते हैं।"

पड़ोसी राज्यों से लानी पड़ती है दीये बनाने के लिए मिट्टी

हरिकिशन ने बताया कि दीये तैयार करने के लिए कई प्रकार की मिट्टी का प्रयोग किया जाता है, जिसमें से काफी हरियाणा से आती है, लेकिन अब मिट्टी भी पहले जैसी अच्छी नहीं मिलती। कुम्हारों ने पारंपरिक व्यवसाय को बचाने के लिए सरकार के सहयोग न मिलने के प्रति भी नाराजगी जाहिर की। कुम्हारों के मुताबिक, "पहले दीये तैयार करने के लिए मिट्टी दिल्ली में ही मिल जाती थी, लेकिन अब यह हरियाणा और राजस्थान जैसे अन्य राज्यों से लानी पड़ती है।" कुम्हारों ने कहा, "मिट्टी लाने के लिए हमें इतनी परेशानी झेलनी पड़ती है। क्या सरकार इन छोटे मसलों के लिए भी कुछ नहीं कर सकती।"