उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र में गरीब परिवारों की मदद करेगा आशा किरण, द/नज फाउंडेशन करेगा 200 करोड़ का निवेश
द/नज फाउंडेशन का मिशन गरीबी उन्मूलन है और ‘सेंटर फॉर रूरल डेवलपमेंट’ ग्रामीण भारत में आजीविका में सुधार पर केंद्रित है।
ग्रामीण भारत पर कोविड-19 के प्रभाव पर विस्तारपूर्वक और पर्याप्त आंकड़ों के साथ चर्चा नहीं की गई है। महामारी ने जहां शहरी क्षेत्रों में लोगों की आजीविका को तहस-नहस कर दिया है, वहीं ग्रामीण भारत में भी स्थिति कुछ ऐसी ही है। भारत ने जहां करोड़ों लोगों को आर्थिक गरीबी रेखा से उबारकर बड़ी प्रगति की है, वहीं हमारे 27 करोड़ देशवासी अभी भी अत्यधिक गरीबी में जी रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी दर (25%) शहरी क्षेत्रों (14%) की तुलना में बहुत अधिक है।
हाल ही में indiatv.in/paisa के अभिषेक श्रीवास्तव के साथ एक साक्षात्कार में द/नज फाउंडेशन के अध्यक्ष आशीष करमचंदानी ने ग्रामीण भारत पर कोविड-19 के प्रभाव पर विस्तृत चर्चा की और देश के गैर-लाभकारी क्षेत्र पर इसके प्रभाव पर भी प्रकाश डाला।
कोविड-19 की दो लहरों का ग्रामीण भारत पर क्या प्रभाव पड़ा है?
कोविड-19 की दो लहरों ने पूरे भारत में ग्रामीण इलाकों के परिवारों को बुरी तरह से प्रभावित किया है। हम प्रभाव का आकलन करना शुरू करते हैं तो यह पहचानना महत्वपूर्ण है कि प्रभाव घर एवं परिवारों के प्रकार के अनुसार भिन्न होता है। ग्रामीण परिवारों को वर्गीकृत करने का एक तरीका इस बात पर आधारित है कि परिवार जैसे-तैसे निर्वाह कर रहा है, कोई व्यवसाय कर रहा है या विविध स्रोतों से जीविकोपार्जन कर रहा है। उदाहरण के लिए भूमिहीन परिवार लगभग पूरी तरह से मजदूरी और शहरी क्षेत्रों में प्रवास पर निर्भर हैं। वे कोविड के दुष्परिणाम झेल चुके हैं, क्योंकि वे काम नहीं ढूंढ़ पा रहे थे, जिससे उन्हें शहर छोड़कर घर वापस जाने के लिए मजबूर होना पड़ा।
दूसरी ओर सीमांत या छोटी जोत वाले परिवार मजदूरी पर निर्भर होते हुए भी किसी न किसी रूप में कृषि पर भी आश्रित होते हैं। कोविड के दौरान ऐसे परिवार अपनी उपज को बाजार में या सही कीमत पर नहीं बेच सके। उनके पास दिहाड़ी श्रम में संलग्न होने के सीमित अवसर हैं और उन्हें जरूरी चीजों की खरीद के लिए भी पैसों के लिए संघर्ष करना पड़ा है।
फिर ऐसे घर-परिवार आते हैं, जो सूक्ष्म उद्यम चलाते हैं, जैसे कि चने की दुकानें, सब्जी की दुकानें, किराना स्टोर आदि। ऐसे परिवारों को धंधा बंद करना पड़ा है और उन्हें कोविड महामारी से पहले की तरह व्यवसायों को फिर से शुरू करना मुश्किल होगा, जिससे उनकी आय का और अधिक ह्रास होगा व अंत में उनकी जो थोड़ी-बहुत बचत होगी, वह भी खर्च हो जाएगी।
कृषि उद्यम चलाने वाले बड़े किसान भी प्रभावित हुए हैं और उनकी आमदनी में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हो पा रही है। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी घरों को देखें तो यह रुझान उभर रहा है कि ग्रामीण भारत में खपत में कमी हुई है और उन्हें गुजारे के लिए अपनी बचत में से भी पैसे निकालने पड़े हैं, यहां तक की पैसे उधार भी लेने पड़े हैं।
आप उप्र में ग्रामीण क्षेत्र के गरीबों की स्थिति और कोविड के बाद के परिदृश्य पर राज्य सरकार के प्रयासों का आकलन कैसे करते हैं?
इसमें कोई संदेह नहीं है कि उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र के गरीबों को अन्य राज्यों के अपने ही स्तर के लोगों की तरह महामारी के दो बेहद कठिन दौरों से जूझना पड़ा है, जिससे उनकी आय में कमी आई है और खर्च करने की क्षमता भी प्रभावित हुई है। पूरे कोविड प्रकोप के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार ने मौजूदा योजनाओं और नए उपायों की मदद से राहत प्रदान करने के लिए कदम बढ़ाया है। हम मानते हैं कि उत्तर प्रदेश में सरकारी योजनाओं की पहुंच का विस्तार करने और तेजी से स्थिति पर नियंत्रण पाने एवं दीर्घकालिक स्थिरता में सहायता के लिए बड़े पैमाने पर स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) और सामुदायिक संस्था के बुनियादी ढांचे का लाभ उठाने का एक बड़ा अवसर है। उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम चल रहे हैं और गरीबों के लिए उनके लाभों को बढ़ाने के लिए सरकारी योजनाओं के ‘कन्वर्जेन्स’ को सक्षम करना ज़रूरी है। हम इस सकारात्मक बदलाव को सक्षम करने के लिए राज्य सरकार और निजी क्षेत्र के साथ सक्रिय रूप से भागीदारी करने के लिए बहुत ही सम्मानित महसूस कर रहे हैं।
ग्रामीण भारतीयों पर कोविड-19 के प्रभाव के बारे में आपके पास क्या आंकड़े हैं?
हमें एक सर्वेक्षण से कुछ शुरुआती संकेत मिल रहे हैं, जो हमने अभी-अभी पूरा किया है कि उत्तर प्रदेश में कोविड की दूसरी लहर के दौरान ग्रामीण परिवारों को किस हद तक परेशानी का सामना करना पड़ा है। सर्वेक्षण किए गए परिवारों के एक महत्वपूर्ण हिस्से (~95%) ने पिछले वर्ष की तुलना में आय में कमी की बात कही, 82% ने कहा कि उनकी आय उनकी आवश्यक जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं थी। इसी प्रकार सर्वेक्षण किए गए परिवारों के एक महत्वपूर्ण हिस्से (60%) को खर्चों की पूर्ति करने के लिए ऋण भी लेना पड़ा।
इस समय सरकार द्वारा प्रदान किया गया सामाजिक सुरक्षा तंत्र (मौजूदा योजनाएं और नए राहत उपाय दोनों) महत्वपूर्ण है। हम अपने सर्वेक्षण में देख रहे हैं कि इस चुनौतीपूर्ण समय के दौरान परिवारों की मदद करने के लिए यह तंत्र अमूल्य रहा है। यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि ये सभी लाभ जरूरतमंद परिवारों तक पहुंचें। भारत में एक विशाल सामाजिक बुनियादी ढांचा भी है – 60 लाख स्वयं सहायता समूह, जो महिलाओं को विकास के केंद्र में रखते हैं।
आजीविका का पुनर्निर्माण और उसे बढ़ाना भी महत्वपूर्ण है और यह हमारे कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसमें कृषि शामिल है, जहां हम एक ओर उत्पादकता बढ़ाने और बेहतर कीमतों वाली फसलों को बढ़ावा देने के लिए काम कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर किसानों को बाजार से जुड़ाव और पशुधन (बकरी और मुर्गी पालन- दोनों ही गरीब ग्रामीण क्षेत्र के परिवारों के लिए प्रभावी तरीके हैं ) के माध्यम से बेहतर मूल्य प्राप्त करने में मदद करने पर काम कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश और आस-पास के राज्यों में आशा किरण कार्यक्रम के अलावा द/नज सेंटर फॉर रूरल डेवलपमेंट झारखंड में अति-निर्धन समुदाय की मदद करने के लिए एक प्रभावी कार्यक्रम चलाता है, जहां हमने विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त ‘ग्रेजुएशन एप्रोच’ को नियोजित किया है जो परिवारों को अति-निर्धनता से उबारने के लिए एक निश्चित, समयबद्ध और साक्ष्य-आधारित विधि है। हमारे काम में सावधानीपूर्वक अनुक्रमित और बहुआयामी मध्यावर्तनों को डिजाइन और कार्यान्वित करना शामिल है जो धीरे-धीरे अति-निर्धनों को गरीबी से बाहर निकालते हैं।
उत्तर प्रदेश में आशा किरण के माध्यम से फाउंडेशन द्वारा किए जाने वाले निवेश का कार्यक्षेत्र और दायरा क्या है?
द/नज फाउंडेशन का मिशन गरीबी उन्मूलन है और ‘सेंटर फॉर रूरल डेवलपमेंट’ ग्रामीण भारत में आजीविका में सुधार पर केंद्रित है। हम सरकारों के साथ गहराई से जुड़े हुए हैं, क्योंकि उनके पास बेजोड़ पहुंच और संसाधन हैं। हमारा विचार यह है कि हम इस पहुंच का उपयोग हाशिए पर जी रहे ग्रामीण समुदायों, और उन अति-निर्धन परिवारों के लाभ के लिए प्रभावी ढंग से करने में सक्षम हों, जिन्हें सबसे ज्यादा मदद की जरूरत है।
हमारे काम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) को व्यवहार्य बनाकर और उन्हें बाजार से जोड़कर छोटे किसानों की आय में वृद्धि करना है। इसमें एफपीओ के लिए नए मॉडल बनाना और छोटे किसानों का आय में हिस्सा बढ़ाने के तरीके खोजने के लिए निजी क्षेत्र की संस्थाओं के साथ जुड़ना शामिल है।
आशा किरण- द होप प्रोजेक्ट के हिस्से के रूप में द/नज सेंटर फॉर रूरल डेवलपमेंट 200 करोड़ रुपए का निवेश ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की आजीविका में सहयोग करने और गरीब परिवारों को सरकारी कार्यक्रमों, सब्सिडी, योजनाओं और निजी क्षेत्र के निवेश तक पहुंचने में मदद करने के लिए कर रहा है। इस पहल को बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन, द रॉकफेलर फाउंडेशन, द स्कोल फाउंडेशन, हिंदुस्तान यूनिलीवर फाउंडेशन, फिक्की-आदित्य बिरला सीएसआर सेंटर फॉर एक्सीलेंस, एचटी पारेख फाउंडेशन, गोदरेज, आरबीएल बैंक, केपीएमजी आदि का समर्थन प्राप्त है।
पड़ोसी भौगोलिक क्षेत्रों के साथ उत्तर प्रदेश पर प्राथमिक राज्य के रूप में ध्यान केंद्रित करते हुए आशा किरण सरकार के साथ साझेदारी में उच्च प्रभाव वाले मॉडल्स को क्रियान्वित करने के लिए सरकारी प्राथमिकताओं और कार्यक्रमों पर काम करेगी। आशा किरण के कार्यान्वयन भागीदारों में ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन, इंडस एक्शन, मैजिक बस, हेफ़र इंटरनेशनल, ट्रस्ट कम्युनिटी लाइवलीहुड, द गोट ट्रस्ट, हकदर्शक और अन्य शामिल हैं।
कोविड के बाद गैर-लाभकारी संस्थाओं के लिए आप क्या चुनौतियां देखते हैं?
मार्च 2020 से गरीबों की मदद करने में गैर-लाभकारी संगठन सबसे आगे रहे हैं, ये हम सब मानते हैं । जिसके बारे में कम ज्ञात है, वह है गैर-लाभकारी संस्थाओं के कार्यों और उन्हें प्राप्त होने वाले वित्त पर कोविड के प्रभाव।
लॉकडाउन के दौरान गैर-लाभकारी संस्थाओं ने जो काम किया, उसके बाद के प्रतिबंध और दूसरी लहर (जिसने कई गैर-लाभकारी संस्थाओं के कर्मचारियों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया) के कारण कई गैर-लाभकारी संस्थाओं को उन कार्यों को सीमित करना पड़ा है, जो वे जमीनी स्तर पर करती हैं। इसके अलावा बहुत सारा धन – जो व्यक्तिगत रूप से व कॉर्पोरेट्स (सीएसआर) और फाउंडेशनों के द्वारा प्रदान किया गया था, वह कोविड राहत के लिए खर्च करना पड़ा है, जिस वजह से गैर-कोविड गतिविधियों पर काम कम हो गया है। उदाहरण के लिए उनके सामान्य कार्यक्षेत्रों के लिए कॉर्पोरेट्स (सीएसआर) द्वारा प्रदान की जाने वाली वित्तीय सहायता 30-60% तक कम हो गई।
उनके द्वारा किए जाने वाले कार्यों में कमी के अलावा उपलब्ध धन में कमी ने कई गैर-सरकारी संगठनों को भी कर्मचारियों की छंटनी करने के लिए मजबूर किया है। कोविड की दूसरी लहर बहुत ही भयावह थी, क्योंकि इसने कई गैर-सरकारी संगठनों को अपनी जमापूंजी को खर्च करने के लिए भी मजबूर कर दिया था। कुछ क्षेत्रों में काम करने की क्षमता में कमी आने और नौकरियों की संख्या (भारत में गैर-लाभकारी क्षेत्र 70 लाख नौकरियां प्रदान करता है) में कटौती करने के कारण इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।
इस कठिन समय में गैर-संस्कारी संगठनों की मदद करने के लिए हमें अपने पारंपरिक दानदाताओं के द्वारा उनके लिए अपना सहयोग बढ़ाए जाने की नितांत जरूरत है। यह भी सहायक होगा यदि सरकार अपनी अनुपालन आवश्यकताओं को कम कर दे और एफसीआरए फंड केवल एफसीआरए लाइसेंस वाले गैर-सरकारी संगठनों के लिए ही नहीं, बल्कि सभी गैर-सरकारी संगठनों के लिए खोल दे।
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