मुंबई। रिजर्व बैंक के एक अध्ययन में आर्थिक क्षेत्र में गिरावट को थामने के लिये मिली जुली राजकोषीय और मौद्रिक नीतियों की वकालत की गई है। इसमें कहा गया है कि मांग पक्ष के रास्ते को आपूर्ति पक्ष की ओर से मौद्रिक नीति के अनुकूल प्रसार की मदद मिलनी चाहिए। आरबीआई के विकास शोघ समूह (डीआरजी) द्वारा ‘भारत में जोखिम प्रीमियम के आघात और कारोबार में चक्रीय उच्चावचन के परिणाम’ पर किए गये अध्ययन में 2009 के संकट का संदर्भ देते हुये कहा गया है कि 2009 के बाद समय पर कर्ज वापस नहीं किए जाने के बढ़ते मामलों को देखते हुये कर्ज पर जोखिम प्रीमियम बढ़ने (ब्याज सामान्य से ऊंचा होने) के कारण इकाइयों के स्तर पर ब्याज दरों में वृद्धि दर्ज की गई।
इसमें कहा गया है कि कर्ज चुकाने में असफलता की ऊंची दर के कारण रिण वृद्धि पर भी बुरा असर पड़ा। इससे कर्ज मांगने वालों पर असर हुआ और वृद्धि प्रभावित हुई। अघ्ययन में मौजूदा संकट से निपटने के लिये नीतिगत हस्तक्षेप के मामले में कहा गया है, ‘‘हमारा नीतिगत अनुभव कहता है कि आर्थिक क्षेत्र में गिरावट को थामने के लिये प्रोत्साहक मौद्रिक या फिर राजकोषीय नीति अलग अलग स्तर पर लाये जाने के बजाय मिली जुली राजकोषीय और मौद्रिक नीतियां बेहतर प्रदर्शन कर सकती हैं। इसमें मांग पक्ष रास्ते को आपूर्ति पक्ष की तरफ से मौद्रिक नीतियों के अनुकूल प्रसार की प्रणाली के जरिये पूरा किया जा सकता है।’’
रिजर्व बैंक के आर्थिक और नीति शोध विभाग के हिस्से के तौर पर डीआरजी का गठन किया गया है। इसमें मौजूदा हितों के विषय पर मजबूत विश्लेषण और अनुभवजन्य आधार पर त्वरित और प्रभावी नीतिगत शोध किया जाता है। शेशाद्री बनर्जी, जिबिन जोस और राधेश्याम वर्मा द्वारा तैयार इस अध्ययन में कारोबार के चक्रीय उतार चढ़ाव पर वित्तीय झटकों यानी कर्ज की दर पर प्रीमियम में उतार चढ़ाव के प्रभावों की खोजने का प्रयास किया गया है।
रिजर्व बैंक ने डीआरजी का एक और अध्ययन प्रकाशित किया है जिसका शीर्षक है ‘‘मुद्रास्फीति की न्यूनतम सीमा -- अवधारणा और प्रमाण।’’ इसे रविन्द्र एच ढोलकिया, जय चंदर, इपसिता पाढी और भानु प्रताप ने तैयार किया है। इस अध्ययन में मुद्रास्फीति सीमा की अवधारणा का परीक्षण किया गया है।
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