रत्नागिरी: महाराष्ट्र स्थित रत्नागिरी जिले के समुद्र तट पर मंगलवार को एक कछुए की पीठ ( हार्ड शेल) पर लगे सैटेलाइट टैग का वीडियो देखकर कई लोग हैरान हो गए। इस कछुए पर सैटेलाइट टैग किसने और क्यों लगाया... सैटेलाइट टैग लगा यह कछुए क्यों समुद्र में चला गया...इसमें कहीं कोई साजिश तो नहीं? ऐसे कई सवाल लोगों के मन में उठने लगे। इंडिया टीवी की टीम ने सोशल मीडिया पर वायरल इस वीडियो की पड़ताल की तो पता चला की सैटेलाइट लगा ये कछुआ मैंग्रोव फाउंडेशन और वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्युट ऑफ इंडिया के एक अहम प्रोजेक्ट का हिस्सा है।
दरअसल, ये कछुआ ऑलिव रिडले प्रजाति का है और हर साल नवंबर से अप्रैल के बीच इस प्रजाति के मादा कछुए किनारों पर अंडे देने आते हैं। अंडे देने के बाद ये मादा कछुए समुद्र में चल जाते है। मैंग्रोव फाउंडेशन के मुख्य संरक्षक विरेंद्र तिवारी ने इंडिया टीवी को बताया- ऐसा कहा जाता है कि देश के पश्चिम तट पर अंडे देने के बाद ये मादा कछुए पाकिस्तान, मिडल ईस्ट या श्रीलंका की दिशा में चले जाते है। ये कछुए सही मायनों में कहां जाते हैं और फिर अंडे देने के कितने समय बाद ये मादा कछुआ दोबारा उस जगह पर लौटती है या नहीं इसकी स्टडी की जा रही है। कुछ स्टडीज के मुताबिक, कई मादा कछुए साल में तीन बार उसी नेस्टींग स्पॉट पर लौटते हैं तो कुछ कछुए दो साल में एक बार लौटते हैं। इन सभी बातों का सटीक अध्यन करने के लिए ये सैटेलाइट टैग कारगर होंगे।
इस प्रोजेक्ट के तहत कुल पांच कछुओं को सैटेलाइट टैग लगाया जाएगा। जिस पहले मादा कछुए को सैटेलाइट टैग लगाया गया उसका नाम प्रथम रखा गया है। प्रथम कछुए पर लगाए गए सैटेलाइट टैग को विदेश से आयात किया गया है। इस सैटेलाइट टैग से मिलने वाले सिग्नल पर वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की टीम नजर रखेगी और इसके आंकड़े को इकट्ठा किया जाएगा। इस पूरे प्रोजक्ट पर करीब 10 लाख रुपए खर्च किए जा रहें हैं।
विरेंद्र तिवारी के मुताबिक, ऑलिव रिडले प्रजाति के कछुओं को संरक्षित करने के लिए बड़े प्रयास किए जा रहे हैं। नेस्टींग साइट्स पर कई बार कुत्ते, कौवे इन अंडों को खा जाते हैं या नष्ट कर देते हैं। कई बार आदमी भी इन अंडों को चुरा लेते है। इसलिए हम समुद्र किनारों पर जहां नेस्टींग साइट्स होते है वहां पर बीच मैनेजर तैनात करते हैं ताकि, इन अंडों को सुरक्षित रखा जा सके।