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नारायणराव अपने रिश्तेदार रघुनाथराव और आनंदीबाई की नीयत से वाक़िफ़ थे। उन्हें ये भी मालूम था कि उनकी बड़े भाई विश्वासराव के साथ उनकी बिल्कुल नहीं बनती थी। उनके करीबी सलाहकारों ने इस नफ़रत की आग में घी का काम किया और जिसके चलते नारायणराव को रघुनाथराव को नज़रबंद करना पड़ा।
नज़रबंदी की ख़बर मिलते ही आनंदीबाई आगबबूला हो उठी और नारायणराव से बदला लेने की योजना बनाने लगीं। उन्होंने पति को छुड़ाने और नारायणराव की हत्या करने का षणयंत्र रचा। उन्हें मालूम था कि नारायणराव के लिए मध्य भारत के भील (गार्दी) सिरदर्द बने हुए हैं सो उन्होंने इसका फ़ायदा उठाया।
उन्होंने रघुनाथराव को गार्दी के नेता सुमेर सिंह को मदद और नारायणराव को पकड़ने के लिए पत्र लिखने को कहा। पत्र में लिखा था “नारायणराव ला धारा”, जिसका मतलब होता है ‘नारायणराव को पकड़ो।’ लेकिन आनंदीबाई इसे बदलकर कर दिया “नारायणराव ला मारा” यानी नाराय़ण राव को ख़त्म कर दो। गणेश चतुर्थी के आख़िरी दिन रात को गार्दी के प्रशिषित हमलावरों ने शनिवार वाड़ा पर हमला बोल दिया और मारकाच के बाद रघुनाथराव को छुड़ा लिया।
इसके बाद वे नारायणराव की तलाश करने लगे जो इन सब घटनाओं से अंजान अपने कमरे में सो रहे थे। लेकिन शोर सुनकर उनकी नींद खुल गई और मदद के लिए काका की तरफ भागे लेकिन गार्दी हमलावरों ने उन्हें पकड़ लिया और उन पर वार करने लगे। नारायणराव चीखते रहे, “काका माला वाचवा” लेकिन कोई भी बचाने के लिए नहीं आया।
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