आचार्य चाणक्य की नीतियां और विचार भले ही आपको थोड़े कठोर लगे लेकिन ये कठोरता ही जीवन की सच्चाई है। हम लोग भागदौड़ भरी जिंदगी में इन विचारों को भले ही नजरअंदाज कर दें लेकिन ये वचन जीवन की हर कसौटी पर आपकी मदद करेंगे। आचार्य चाणक्य के इन्हीं विचारों में से आज हम एक और विचार का विश्लेषण करेंगे।
अनवस्थितकायस्य न जने न वने सुखम्।
जनो दहति संसर्गाद् वनं संगविवर्जनात।।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि मन से स्थिर व्यक्ति को लोगों के बीच में सुख मिलता है और न ही वन में। ऐसे व्यक्ति को लोगों के बीच ईर्ष्या जलाती है और वन में अकेलापन। इसका अर्थ है कि सफलता का स्वाद चखने के बाजूद भी मन को वश में रखना जरूरी होता है। क्योंकि जिसका मन वश में होता है, वो कुछ भी हासिल कर सकता है।वहीं, चंचल मन का व्यक्ति कड़ी मेहनत करने के बाद भी भटक जाता है। चंचल मन दूसरों को तरक्की करते हुए देखकर जलता है और कुंठित रहता है। उसे न तो सबसे बीच खुशी मिलती है और न ही अकेलेपन में।
अगर सफलता प्राप्त करनी है तो अपने मन को स्थिर करना जरूरी है क्योंकि स्थिर मन के साथ ही किसी कार्य को पूरी लगन से किया जा सकता है। तभी उस कार्य के परिणाम मिल पाते हैं।
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