राम नवमी 2020: जानें शुभ मुहूर्त और पूजा विधि
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी यानी नवरात्र के आखिरी दिन भगवान श्री राम का जन्मोत्सव मनाया जाता है।
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी यानी नवरात्र के आखिरी दिन भगवान श्री राम का जन्मोत्सव मनाया जाता है। आचार्य इंदु प्रकाश के अनुसार भगवान श्रीराम का जन्म को मध्याह्न में यानी दोपहर के समय कर्क लग्न में हुआ था | उस समय चन्द्रमा पुनर्वसु नक्षत्र में था और सूर्य मेष राशि में था | राम नवमी के दिन व्रत रखने की भी मान्यता है |
इस दिन व्रत रखने के पीछे अलग-अलग मत हैं | कुछ लोग राम नवमी के व्रत को केवल नित्य मानते हैं तो कुछ लोग नित्य और काम्य दोनों | नित्य से यहां मतलब है कि राम नवमी का व्रत केवल राम-भक्तों द्वारा किया जा सकता है, जबकि जो लोग विशिष्ट फल चाहते हैं, उनके लिये यह काम्य है | अगस्त्यसंहिता में आया है कि यह व्रत सबके लिये है | वहीं निर्णयसिन्धु और तिथितत्व जैसे ग्रन्थों का निष्कर्ष है कि रामनवमी का व्रत नित्य और काम्य दोनों है | अतः जो राम-भक्त हैं या जो राम-भक्त नहीं हैं, वो भी किसी विशिष्ट इच्छा की पूर्ति के लिये रामनवमी का व्रत रख सकता है |
राम नवमी का शुभ मुहूर्त
आचार्य इंदु प्रकाश के मुताबिक राम नवमी का मुहूर्त प्रात: काल 3 बजकर 41 मिनट से शुरू हो जाएगा। ये मुहूर्त दोपहर के 2 बजकर 43 मिनट तक रहेगा।
राम नवमी की पूजा विधि
राम नवमी वाले दिन चैत्र नवरात्रि का समापन होता है और मां दुर्गा को विदाई दी जाती है। नवरात्र का पारण 2 अप्रैल को किया जाएगा। नवमी का व्रत एवं हवन पूजा गुरुवार 2 अप्रैल को किया जाएघा और फिर श्रीराम का जन्मोत्सव मनाया जाएगा। आज के दिन ही अयोध्या में राजा दशरथ के यहां भगवान राम का जन्म हुआ था। इस दिन अगर आप रामचरित मानस का पाठ करते हैं तो काफी शुभ होता है।
रामनवमी के दिन सुबह उठकर सभी कामों निवृत्त होकर स्नान करके साफ वस्त्र पहन लें इसके बाद भगवान राम, मां सीता, लक्ष्मण और हनुमान जी की तस्वीर में फूल अर्पण करें। इसके बाद तिलक लगाएं। फिर चावल और मिठाई का भोग लगाकर जल अर्पण करें। इसके बाद घंटी और शंख भी चढ़ाएं। इसके बाद भगवान श्रीराम के मंत्रों का जाप करें। हो सके तो राम चलीसा और रामायण का पाठ पढ़ें। अंत में आरती करें। इसके बाद भगवान राम को झुला जरूर झुलाएं।
राज जन्म कथा
राज जन्म कथा के बारे में वाल्मिकी रामायण और रामचरितमानस दोनों में किया गया है। कथा के मुताबिक अयोध्या नरेश दशरथ की तीन पत्नियां थी, किसी तरह का कोई दुख नहीं था लेकिन एक चिंता थी कि तीनों रानियों में से किसी से भी पुत्र प्राप्ति न होने से राज्य के उत्तराधिकारी का संकट छा रहा था। तब महाराज दशरथ की गुरुमाता महर्षि वशिष्ठ की पत्नी ने इस पर चिंता जताते हुए अपनी शंका जाहिर की कि आपके शिष्य पुत्र विहीन हैं ऐसे में राज-पाट को उनके बाद कौन संभालेगा?। तब महर्षि बोले कि जब दशरथ के मन में यह विषय है ही नहीं तो फिर बात कैसे आगे बढ़ सकती है। तब गुरुमाता एक दिन अपने पुत्र को गोद में लेकर दशरथ के महल में जा पंहुची। गुरु मां की गोद में बालक को देखकर दशरथ लाड़ लड़ाने लगे। तब गुरु मां ने कहा कि आप तो महर्षि के शिष्य हैं, लेकिन आपका तो कोई पुत्र नहीं है। ऐसे में इसका शिष्य कौन बनेगा। गुरु मां के वचन सुनकर दशरथ को ग्लानि हुई और वे महर्षि वशिष्ठ से पुत्र प्राप्ति के उपाय हेतु उनके चरणों में गिर पड़े।
इस पर महर्षि ने कहा कि आपको पुत्र प्राप्ति तो हो सकती है लेकिन उसके लिए पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाना पड़ेगा। तब दशरथ बोले कि गुरुदेव तो देर किस बात की है जब चाहे आप शुरू कर सकते हैं। तब महर्षि बोले-राजन! यह इतना सरल नहीं है। जो भी पुत्रेष्ठि यज्ञ करेगा उसे अपनी पूरे जीवन की साधना की इस यज्ञ में आहुति देनी पड़ेगी।
दशरथ चिंतित हुए बोले कि हे ऋषि श्रेष्ठ! ऐसा करने के लिए कौन तैयार हो सकता है? फिर उन्होंने दशरथ की पुत्री शांता की याद दिलाई जिसे उन्होंने रोमपाद नामक राजा को गोद दे दिया था और उन्होंने शांता का विवाह ऋंग ऋषि से किया था। महर्षि बोले यदि शांता चाहे तो ऋंग ऋषि से यह यज्ञ करवाया जा सकता है। तब शांता ने अपने पति ऋषि ऋंग को इसके लिए तैयार किया बदले में इतना धन उन्हें दान में दिया गया जो उनकी अपनी संतान के भरण-पोषण के लिए जीवन पर्यंत पर्याप्त रहे।
यज्ञ करवाया गया और हवन कुंड से प्राप्त खीर तीनों रानियों कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी को दी गई। प्रसाद ग्रहण करने से तीनों रानियों ने गर्भधारण किया और चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य, मंगल, शनि, बृहस्पति तथा शुक्र जब अपने उच्च स्थानों में विराजमान थे तब कर्क लग्न का उदय होते ही माता कौशल्या के गर्भ से भगवान श्री विष्णु श्री राम रूप में अवतरित हुए. इनके पश्चात शुभ नक्षत्रों में ही कैकेयी से भरत व सुमित्रा से लक्ष्मण व शत्रुघ्न ने जन्म लिया। महर्षि वशिष्ठ ने चारों पुत्रों का नामकरण किया।