A
Hindi News लाइफस्टाइल जीवन मंत्र जन्माष्टमी स्पेशल: लोक मंगल के लिए लीलाएं करने वाले कर्मयोगी कृष्ण

जन्माष्टमी स्पेशल: लोक मंगल के लिए लीलाएं करने वाले कर्मयोगी कृष्ण

लोक में कृष्ण की छवि ‘कर्मयोगी’ के रूप में कम और ‘रास-रचैय्या’ के रूप में अधिक है। उन्हें विलासी समझा जाता है और उनकी सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ बताकर उनकी विलासिता सप्रमाणित की जाती है।

lord krishna- India TV Hindi lord krishna

(डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र-सहायक-प्राध्यापक (हिन्दी) उच्च शिक्षा उत्कृष्टता संस्थान, भोपाल)

नई दिल्ली: लोक में कृष्ण की छवि ‘कर्मयोगी’ के रूप में कम और ‘रास-रचैय्या’ के रूप में अधिक है। उन्हें विलासी समझा जाता है और उनकी सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ बताकर उनकी विलासिता सप्रमाणित की जाती है।

चीर-हरण जैसी लीलाओं की परिकल्पना द्वारा उनके पवित्र-चरित्र को लांछित किया जाता है। राधा को ब्रज में तड़पने के लिए अकेला छोड़कर स्वयं विलासरत रहने का आरोप तो उन पर है ही, उनकी वीरता पर भी आक्षेप है कि वे मगधराज जरासन्ध से डरकर मथुरा से पलायन कर गए।

महाभारत के युद्ध का दायित्व भी उन्हीं पर डाला गया है। अनुश्रुति है कि महाभारत का युद्ध समाप्त होने पर जब राजा युधिष्ठिर ने युद्ध में मारे गए अपने सभी परिजनों (कौरवों का भी) की आत्मिक शन्ति के लिए उनके ऊध्र्व दैहिक संस्कार (अन्त्येष्टि-श्राद्ध) किए तो कौरव कुलवधुओं के साथ माता गांधारी भी अपने सौ पुत्रों को तिलांजलि देने के लिए वहाँ पधारीं। तर्पण से पूर्व उन्होंने आँखों पर बँधी

पट्टी खोली और अपने कुल का विनाश देखकर रोष में भर उठीं। उनकी क्रुद्ध दृष्टि कृष्ण पर पड़ी और उन्होंने युद्ध पूर्व के उनके गीता-उपदेश को युद्ध का हेतु मानते हुए उन्हें उत्तरदायी ठहराया तथा शाप दिया कि उनकी मृत्यु भी नितान्त एकाकी स्थिति में हो। वे भी अपने वंश का विनाश देखें। इस अनुश्रुति के आधार पर बहुत से लोग कृष्ण को इस युद्ध का उत्तरदायी ठहराते हैं, जबकि वास्तविकता इससे नितान्त भिन्न है।

कृष्ण ने ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में निष्काम कर्मयोग के जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया उसे व्यवहार के निकष पर वे आजीवन परखते रहे थे। उन्होंने उसे आचरण में उतारा था और सच्चे अर्थों में आत्मसात् किया था। उनका जीवन लोकसंग्रह के लिए समर्पित रहा। उनके राग में परम विराग और आसक्ति में चरम विरक्ति थी। सभी प्रकार की एषणाएँ उनके नियत्रण में थीं। वे जितेन्द्रिय योगी, दूरदृष्टा राजनीतिज्ञ, परमवीर, अद्भुत तार्किक और प्रत्युत्पन्नमति सम्पन्न महामानव थे।

कृष्ण पृथ्वी-पुत्र थे। वे मिट्टी से जुड़े थे। राजभवन और तृण-कुटीर दोनों के व्यापक अनुभव से वे अति समृद्ध थे। वे भारत में पलने वाले उन कोटि-कोटि भारतीयों के प्रतिनिधि हैं; जो देह से पुष्ट और मन से सशक्त हैं, जिनमें शोषण और अत्याचार के विरूद्ध संघर्ष करने की अपार ऊर्जा है; जिनकी बलवती जिजीविषा और दुर्धर्ष शक्ति असम्भव को भी सम्भव कर दिखाती है। इसीलिए वे वन्द्य और अनुकरणीय हैं।

कृष्ण का जन्म राजकुल में हुआ, किन्तु पले वे साधारण प्रजाजनों की भाँति। गेंद खेली उन्होंने सामान्य ग्वाल-वालों के बीच तो शिक्षा पाई अकिंचन सुदामा के साथ। बचपन से ही उन्होंने जनतान्त्रिक मूल्यों को आत्मसात् किया।

प्रकृति के खुले प्रांगण ने उन्हें उत्तम स्वास्थ्य तो प्रदान किया ही, साथ ही उनके हृदय को कोमल और संवेदनशील भी बना दिया। गोकुल और वृन्दावन में रहते हुए उन्होंने क्रूर राजसत्ता के अत्याचारों की विभीषिका देखी, नगरों द्वारा गाँवों का शोषण देखा और तज्जनित आक्रोश से  अन्याय के विरूद्ध संघर्ष की ऊर्जा अर्जित की। जीवन संघर्ष के कठोर यथार्थ ने उन्हें व्यावहारिक बनाया।

अगली स्लाइड में पढ़े औऱ

Latest Lifestyle News