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संज्ञानात्मक व्यवहार थेरेपी, परिवार केन्द्रित थेरेपी, मनोवैज्ञानिक शिक्षा, बीमारी के बार-बार होने की रोकथाम में मददगार होती है। जबकि व्यक्तिगत एवं सामाजिक समन्वय थेरेपी, बचे हुऐ अवसाद के लक्षणों में बहुत कारगर साबित होती है। ऐसे व्यक्ति को तब तक किसी व्यवसाय से संबंधित प्रयोगात्मक निर्णय, कार्य के बदलाव या घरेलू मामले से अलग रखना चाहिए, जब तक कि वह अपनी सामान्य मानसिक स्थिति में नहीं आ जाता।
एक बार जब व्यक्ति की भावनाएं, दवाओं एवं इलेक्ट्रोकन्वल्सिव थेरेपी से नियंत्रित हो जाती हैं, तब उसकी व्यक्तिगत परिस्थितियों की समीक्षा करना आवश्यक हो जाता है, ताकि उसे मुश्किलों एवं मुसीबतों से निकालने की योजना बनाई जा सके, जो कि बीमारी के होने का कारण होती हैं।
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