'सांप्रदायिकता भारत के स्वभाव से मेल नहीं खाती', महमूद असद मदनी ने दिया बयान
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में जमीयत उलेमा ए हिंद के अध्यक्ष महमूद मदनी द्वारा एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम में महमूद मदनी ने कहा कि भारत के स्वभाव से सांप्रदायिकता मेल नहीं खाती है।
नई दिल्ली: जमीअत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद असद मदनी के निमंत्रण पर देश के बुद्धिजीवियों, राजनीतिक और धार्मिक नेताओं की एक महत्वपूर्ण सभा का आयोजन किया गया था। “वर्तमान स्थिति पर संवाद“ कार्यक्रम का आयोजन शनिवार को किया गया। इस कार्यक्रम का आयोजन नई दिल्ली के प्रधान कार्यालय के मदली हॉल में आयोजित की गई थी। इस प्रोग्राम में समाज के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ी हस्तियों, अर्थशास्त्रियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, विचारकों और प्रोफेसरों ने भाग लिया। सभा में देश के सामने मौजूद साम्प्रदायिकता की चुनौती, सामाजिक ताने-बाने के बिखराव और इसके रोकथाम के विभिन्न पहलुओं की समीक्षा की गई और जमीनी स्तर पर काम करने और संवाद की आवश्यकता पर सहमति व्यक्त की गई।
देश के स्वभाव से मेल नहीं खाती सांप्रदायिकता
इस दौरान सभी बुद्धिजीवियों ने माना कि साम्प्रदायिकता इस देश के स्वभाव से मेल नहीं खाती और न ही मातृभूमि के अधिकांश लोग ऐसी सोच के पक्षधर हैं। लेकिन ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जो लोग सकारात्मक सोच के समर्थक हैं, उन्होंने या तो खामोशी की चादर ओढ़ ली है या उनकी बात समाज के अंतिम भाग तक नहीं पहुंच पा रही है। इस कारण लोग देश की सोशल डेमोग्राफी को बदल देना चाहते हैं या नफरत की दीवार खड़ी करके अपनी राष्ट्रविरोधी विचारधारा को सफल बनाना चाहते हैं। वह जाहिरी तौर पर हावी होते नजर आ रहे हैं। हालांकि यह वास्तविकता नहीं है। इसलिए समाज के बहुसंख्यक वर्ग को मौन रहने के बजाय कर्मक्षेत्र में आना होगा और भारत की महानता एवं उसके स्वाभाविक अस्तित्व को बचाने के लिए एकजुट एवं सर्वसम्मत लड़ाई लड़नी होगी।
क्या बोले महमूद असद मदनी
अपने उद्घाटन भाषण में जमीअत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष और कार्यक्रम के सूत्रधार मौलाना महमूद असद मदनी ने बुद्धिजीवियों का स्वागत करते हुए सवाल किया कि ऐसी स्थिति में जब देश के एक बड़े अल्पसंख्यक वर्ग को उसके धर्म और आस्था की वजह से निराश करने या अलग-थलग करने की कोशिश की जा रही है, हमें इसके समाधान के लिए क्या आवश्यक कदम उठाने चाहिए? मौलाना मदनी ने कहा कि जमीअत उलमा-ए-हिंद के बुजुर्गों ने गत सौ वर्षों से आधिकारिक तौर पर और दो वर्षों से अनौपचारिक रूप से देश को एकजुट करने की कोशिश की और देश की महानता को अपनी जान से ज्यादा प्रिय बनाया।
उन्होंने कहा कि जब देश के विभाजन की नींव रखी गई तो हमारे पूर्वजों ने अपनों से मुकाबला किया। देश के लिए अपमान सहा और आजादी के बाद राष्ट्रीय एकता के लिए अपने बलिदानों की अमिट छाप छोड़ी और तमाम कठिनाइयों के बावजूद हम आज तक अपनी डगर से हटे नहीं हैं। वर्तमान स्थिति में भी हम संवाद के पक्ष में हैं। हमारी राय है कि सबके साथ संवाद होना चाहिए और एक ऐसा संयुक्त अभियान चलाना चाहिए कि देश का हर धागा एक-दूसरे से जुड़ जाए।