BLOG: कैसे याद किए जाएंगे प्रणब मुखर्जी?
साल 2012...मनमोहन सिंह की सरकार लगातार अलोकप्रिय हो रही थी। घोटालों की कालिख से सरकार का दामन दागदार हो चुका था और जनता में गुस्सा था। ऐसे नाजुक मौके पर जब राष्ट्रपति का चुनाव आया तो कांग्रेस ने प्रणब मुखर्जी का नाम आगे कर दिया गया।
साल 2012...मनमोहन सिंह की सरकार लगातार अलोकप्रिय हो रही थी। घोटालों की कालिख से सरकार का दामन दागदार हो चुका था और जनता में गुस्सा था। ऐसे नाजुक मौके पर जब राष्ट्रपति का चुनाव आया तो कांग्रेस ने प्रणब मुखर्जी का नाम आगे कर दिया गया। ये अपने आप में हैरानी की बात थी कि जब सरकार से लेकर कांग्रेस तक को प्रणब दा की सबसे ज्यादा जरूरत थी, तब उन्हें राष्ट्रपति भवन भेज दिया गया। सरकार में उनकी हैसियत नंबर दो की थी।
विकीलीक्स के एक खुलासे से ये पता लगता है कि 2005 में अमेरिका उन्हें प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग मानने लगा था। उनका प्रधानमंत्री न बन पाना राजनीतिक नियति हो सकता है लेकिन बतौर राष्ट्रपति प्रणब दा कर्तव्य और राजनीतिक शुचिता की मिसाल छोड़कर जा रहे हैं। प्रणब दा को हम ऐसे राष्ट्रपति के तौर पर याद करेंगे जिन्होंने सरकार के साथ-साथ समाज पर निगरानी रखने का काम किया। संयमित तरीके से सरकार के क्रियाकलापों पर अपनी राय रखी और विपक्ष को काम करने की नसीहत दी। मोदी सरकार ने जब अध्यादेशों की झड़ी लगा दी थी, तब प्रणब मुखर्जी ने बेबाकी से कहा- अध्यादेश सबसे आखिरी विकल्प होना चाहिए।
नोटबंदी के बाद संसद में विपक्ष के शोरशराबे पर उन्होंने टिप्पणी की कि भगवान के लिए सदन को चलने दें। उन्होंने मॉब लिंचिंग से लेकर मीडिया की सतर्कता पर अपनी राय रखी। संतुलन की ये परिभाषा व्यवहार में तब आती है जब राजनीति के सर्वोच्च पैमाने नियत और आचरण दोनों में हो। दया याचिकाओं को खारिज करने में प्रणब दा नजीर पेशकर के जा रहे हैं। उन्होंने 34 में से 30 दया याचिकाओं को खारिज किया... अफजल गुरू, कसाब, याकूब मेमन को फांसी संभव हो सकी..कुछ याचिकाएं साल 2000 से लटकी हुई थी, उनकी सुनवाई भी प्रणब दा ने ही की।
आर वेंकटरमण के बाद प्रणब दा दूसरे ऐसे राष्ट्रपति हैं जिन्होंने सबसे ज्यादा दया याचिकाएं खारिज की। उन्होंने राष्टपति को आम लोगों के खोला और लोगों को राष्ट्रपति भवन को करीब से देखने का मौका मिला... मोदी सरकार के आने के बाद उनका कार्यकाल 3 साल का है। इन तीन सालों में प्रणब ने अपनी विचारधारा को संविधान की मर्यादा के आड़े नहीं आने दिया न कभी सरकार के लिए असहज स्थिति पैदा की और न ही कभी टकराव के बीज बोए। अपनी जिम्मेदारियों को उन्होंने पक्ष और विपक्ष के बंधनों से ऊपर रखा इसीलिए वो निर्विवाद बने रहे। राजनीतिक विचारधारा के बाद भी जिम्मेदारियों का सांमजस्य कैसे बैठाया जाता है, ये प्रणब दा ने इन तीन सालों में साबित कर दिया...
'प्रेसिडेंट अ स्टेटमेंट' नाम की एक क़िताब के विमोचन के मौके पर पीएम नरेंद्र मोदी प्रणब दा के बारे में बोलते हुए भावुक हो गए... मोदी ने कहा- ''मुझे प्रणब दा की उंगली पकड़कर दिल्ली की ज़िंदगी में आगे बढ़ने का मौक़ा मिला। प्रणब दा ने पिता की तरह गाइड किया।'' राजनीतिक प्रतिद्वंदिता में ऐसे संबंध कम ही बन पाते हैं और शायद इसीलिए यूपीए सरकार में वो शान से राष्ट्रपति बने थे और एनडीए सरकार में भी शान से उनकी विदाई हो रही है।
340 कमरों के राष्ट्रपति भवन से विदा होने के बाद प्रणब अपनी दुनिया में लौटना चाहते हैं...कोलकाता में माछी भात खाना चाहते हैं..अपने वीरभूम के अपना गांव मिरती में दुर्गा पूजा करना चाहते हैं...उनकी तमन्ना पढ़ाने की है...ऑटोबायोग्राफी लिखने की है...देश के 13वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेने के बाद अपने भाषण में प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि- "बंगाल के एक छोटे से गांव में दीपक की रोशनी से दिल्ली की जगमगाती रोशनी तक की इस यात्रा के दौरान मैंने विशाल और कुछ हद तक अविश्वसनीय बदलाव देखे हैं।" मिरती गांव से राष्ट्रपति भवन की दादा की यात्रा दरअसल लोकतंत्र की ताकत की असली मिसाल है..
(इस ब्लॉग के लेखक संजय बिष्ट पत्रकार हैं और देश के नंबर वन हिंदी न्यूज चैनल इंडिया टीवी में कार्यरत हैं)