ब्लॉग: गीता प्रेस को सम्मान, गांधी का अपमान?
विज्ञापन के पैसों के लिए जहां आज टीवी और प्रिंट मीडिया कुछ भी छापने को तत्पर रहते हैं, दिखाने को मजबूर हो जाते हैं, इसके उलट गीता प्रेस आज भी कम से कम कीमत में पुस्तकें छापता है, जिससे आम लोग आसानी से खरीद सकें।
सरकार का विरोध, सरकार के फैसले का विरोध, सरकारी सम्मान का विरोध, और विरोध की इस परंपरा का ना आदि है ना अंत। इस बार सियासी विरोध का नया चैप्टर है गोरखपुर का गीता प्रेस। गीता प्रेस, जिसका नाम लेने से ही एक धार्मिक, सात्विक और सनातनी छवि सामने आती है। किसी भी बड़े शहर में, रेलवे स्टेशन पर, बड़े चौराहे पर गीता प्रेस की किताबों के स्टॉल आपको दिखते होंगे। रामायण, भगवद् गीता, उपनिषद, धार्मिक किताबों के प्रकाशन की ये संस्था भारत में ही नहीं दुनियाभर में मशहूर है। एक रूपये में गीता की पुस्तक घर-घर तक पहुंचाने वाली ये सनातन संस्था एक प्रिटिंग प्रेस नहीं बल्कि हिंदू समाज की जनभावना का प्रतीक है।
आज के इस भौतिकवादी युग में जहां हर काम, हर फैसले के पीछे एक मात्र मकसद होता है मुनाफा कमाना। विज्ञापन के पैसों के लिए जहां आज टीवी और प्रिंट मीडिया कुछ भी छापने को तत्पर रहते हैं, दिखाने को मजबूर हो जाते हैं, इसके उलट गीता प्रेस आज भी कम से कम कीमत में पुस्तकें छापता है, जिससे आम लोग आसानी से खरीद सकें। गीता प्रेस का मकसद मुनाफा कमाना नहीं होता है। गीता प्रेस में छपी पहली पुस्तक की कीमत 1 रुपये थी। साल 1926 में गीता प्रेस ने मासिक पत्रिका निकालने का फैसला किया था, इस पत्रिका में महात्मा गांधी ने भी अपना लेख लिखा था। गांधी जी ने इस लेख के लिए एक शर्त रखी थी, पत्रिका में कोई विज्ञापन न छापा जाए। गांधी की बात को गीता प्रेस ने गांठ से बांध लिया और आज भी गीता प्रेस की किताबों में विज्ञापन नहीं छपते हैं।
गांधी के मार्ग पर चलने वाले गीता प्रेस को जब मोदी सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने गांधी शांति पुरस्कार देने का फैसला किया, तो सियासत गर्मा गई, फैसले पर सवाल उठाए जाने लगे। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने
गीता प्रेस की तुलना गोडसे और सावरकर से कर दी और यहां तक कह दिया, गीता प्रेस को सम्मान देना गोडसे और सावरकर को सम्मान देने जैसा है। जयराम रमेश का ये तर्क कांग्रेस को भी नहीं पचा, लेकिन पार्टी ने खारिज भी नहीं किया। गीता प्रेस गोरखपुर की शान, पहचान और मान है, योगी आदित्यनाथ ने गांधी शांति पुरस्कार को देश के 100 करोड़ हिदू भावना का सम्मान कहा, कांग्रेस को जवाब भी दिया, कहा कांग्रेस इस बात को पचा नहीं पा रही है, किसी सनातनी संस्था को सम्मान मिले।
गोरखपुर से बीजेपी सांसद रविकिशन ने यहां तक कह दिया, सारा खेल वोट बैंक की राजनीति से जुड़ा है, कांग्रेस को तुष्टिकरण की राजनीति रास आती है और गीता प्रेस का विरोध करना कांग्रेस की उसी राजनीति का एक हिस्सा है। पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि कांग्रेस को तो हिंदू धर्म की हर बात से चिढ़ है, नफ़रत है। इस बात से कांग्रेस भी इनकार नहीं कर सकती गीता प्रेस ने जिस नि:स्वार्थ भाव से अभी तक काम किया है, उसका सम्मान किया जाना चाहिए, लेकिन सवाल जब वोट बैंक का हो तो समर्थन करना है या विरोध सियासी फायदा नुकसान से तय होता है। जयराम रमेश ने अभी ताजा-ताजा कर्नाटक में बजरंग दल पर बैन के वादे का नतीजा देखा है, कांग्रेस को झोली भरकर मुस्लिम वोट मिले हैं। गीता प्रेस का विरोध भी कांग्रेस की इसी सियासी गुणा गणित का सोचा समझा एजेंडा कहा जा सकता है।
यूपी में लोकसभा की 80 और विधानसभा की 403 सीट है। यूपी में मुस्लिम आबादी करीब 20 फीसद है यानी हर पांचवां वोटर मुस्लिम है। कांग्रेस की नजर इस पांचवें वोटर पर है। यूपी में मुस्लिम अभी तक समाजवादी पार्टी के फिक्स वोट बैंक माने जाते थे, लेकिन धीरे-धीरे सपा का मुस्लिम वोट बैंक खिसक रहा है। जिस तरह से कर्नाटक में मुस्लिम वोटर्स ने जेडीएस को छोड़कर कांग्रेस को चुना, यूपी में भी कांग्रेस इसी 20 फीसदी वोट बैंक की जुगत में है। जब तक राम मंदिर पर कोर्ट का फैसला नहीं आया था, कांग्रेस राम मंदिर के खिलाफ थी, राम को एक काल्पनिक चरित्र तक बता दिया था, लेकिन अब राम मंदिर बन रहा है, कोर्ट के आदेश पर बन रहा है, ऐसे में गीता प्रेस को जैसे ही मोदी सरकार ने गांधी शांति पुरस्कार देने का ऐलान किया, जयराम रमेश ने मुद्दे को लपक लिया।
गीता प्रेस और गांधी जी के रिश्तों को लेकर सवाल किया, लेकिन जब जयराम रमेश गीता प्रेस पर सवाल उठाते हैं, तो कहीं ना कहीं गांधी जी के विचारों पर अपने आप वे अनजाने में उंगली नहीं उठा देते। गांधी जी ने आजीवन गरीब, वंचितों और शोषितों की बात की, नि:स्वार्थ सेवा की बात की। गीता प्रेस से गांधी जी ने जो वादा लिया था, 100 साल से ज्यादा का समय बीत जाने के बाद भी ये सनातन प्रकाशन संस्थान उसे निभा रहा है। गीता प्रेस का सिद्धांत है, वो न धर्म के काम के लिए न सम्मान लेता है और न ही किसी प्रकार की सरकारी सहायता, इसलिए जब सरकार ने गांधी शांति पुरस्कार का ऐलान किया तो संस्थान ने ये संदेश सरकार तक पहुंचाने में देरी नहीं लगाई कि प्रशस्ति पत्र को गीता प्रेस खुशी खुशी स्वीकार करेगा, लेकिन एक करोड़ की सम्मान राशि नहीं लेगा। सवाल है क्या गीता प्रेस जैसी धार्मिक प्रकाशन संस्थान को ये पुरस्कार दिये जाने चाहिए। इसका जवाब गीता प्रेस के किये गए कामों में छिपा है।
गीता प्रेस की स्थापना गोरखपुर में 29 अप्रैल 1923 में हुई थी। सनातन धर्म के सिद्धांतों को बढ़ावा देने के लिए जयदयाल गोयनका, घनश्याम दास जालान और हनुमान प्रसाद पोद्दार ने मिलकर की थी। आज गीता प्रेस में 15 भाषाओं में 1848 प्रकार की किताबें प्रकाशित हो रही हैं। देशभर में इस प्रेस की 20 ब्रांच हैं, रोजाना गीता प्रेस में 70 हजार किताबें प्रकाशित होती हैं। छपाई में लगे कर्मचारी किताब की फाइनल बाइंडिंग के वक्त जूता-चप्पल उतारकर काम करते हैं जिससे पाठकों की श्रद्धा और विश्वास से धोखा न हो। जयराम रमेश गीता प्रेस और गांधी जी के रिश्ते का हवाला दे रहे हैं, जबकि गांधी जी के लिखे कई लेख गीता प्रेस के कल्याण मैगजीन में छपे हैं जो आज भी गीता प्रेस की लाइब्रेरी में मौजूद हैं।
पिछले 100 वर्षों में गीता प्रेस, 93 करोड़ किताबों का प्रकाशन कर चुका है, जिनमें अकेले गीता की ही 16 करोड़ से ज़्यादा कॉपी शामिल हैं। इसके अलावा, गीता प्रेस ने रामायण, रामचरित मानस, श्रीमद भागवत, उपनिषद और 18 पुराण भी पब्लिश किए हैं। 1926 से गीता प्रेस ने कल्याण नाम की मैग़ज़ीन निकालनी शुरू की थी जो आज भी पब्लिश होती है। गीता प्रेस की सराहना पूर्व पीएम नरसिम्हा राव भी कर चुके हैं। राव सरकार ने गांधी जी की 125 वीं जयंती के अवसर पर गीता प्रेस को सम्मानित भी किया था। उस समय जयराम रमेश भी सरकार का हिस्सा थे, लेकिन तब ना बीजेपी इतनी बड़ी सियासी पार्टी थी और ना ही कांग्रेस के अस्तित्व पर ही कोई खतरा था।