Maharashtra Political Crisis: महाराष्ट्र में राजनीतिक घमासान अपने चरम पर है। महाराष्ट्र सरकार में प्रमुख दल शिवसेना में फूट पड़ चुकी है। पार्टी के दो गुट हो चुके हैं। बागी हुए गुट का नेतृत्व एकनाथ शिंदे कर रहे हैं और वहीं अभी पार्टी के मुखिया उद्धव ठाकरे ही हैं। दोनों गुट अपने खेमे में अधिक विधायक होने का दावा कर रहे हैं। महाविकास अघाड़ी सरकार को बचाने के लिए हर संभव कोशिशें की जा रही हैं। इस सरकार को बचाने में एनसीपी और कांग्रेस पूरा सहयोग दे रही हैं, लेकिन शिवसेना के अपने ही सरकार को गिराने में जुटे हुए हैं। राजनीतिक पंडित पार्टी में बंटवारा तय मान रहे हैं और अगर ऐसा हो जाता है तो बाला साहेब ठाकरे की बनाई हुई शिवेसना किसकी होगी? शिवसेना का सेनापति कौन होगा?
पहले भी बंटे हैं दल
ऐसा पहली बार नहीं है कि यह पहली बार हो रहा हो। इससे पहले भी कई बार राजनीतिक दलों में बंटवारा हुआ और तय किया गया कि असली दल कौन सा है और किसे उसके चुनावी चिह्न और नाम को इस्तेमाल करने की इजाजत होगी। शिवसेना में फूट से पहले बिहार के राजीतिक दल जनशक्ति दल में बंटवारा हुआ था। यह पार्टी पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान की थी, जिनके निधन के बाद उनके बेटे चिराग पासवान और भाई पशुपति कुमार पारस में दल को लेकर झगड़ा हुआ था। जिसके बाद नाम और चुनाव चिह्न के इस्तेमाल की इजाजत पशुपति कुमार पारस को मिली थी।
कुछ ऐसा ही शिवेसना के साथ भी हो रहा है। खबर आ रही है कि एकनाथ शिंदे गुट ने शिवेसना के चुनाव चिह्न 'तीर-धनुष' पर अपना दावा करने की तैयारी में है। इसके लिए वह उनके साथ पार्टी के सबसे अधिक विधायक होने का आधार बनाएंगे। हालांकि उद्धव गुट से अधिक विधायक शिंदे गुट के साथ होते भी हैं तब भी इतनी आसानी से एकनाथ शिंदे को शिवसेना के चुनाव चिह्न 'तीर-धनुष' को अपने कंधे पर धारण नहीं कर सकेंगे।
इन हालातों में सदन का स्पीकर लेता है फैसला
जानकारों के अनुसार पार्टी में बंटवारे की दो स्थितियां बनती हैं जब सदन चल रही हो और पार्टी के विधायकों या सांसदों में बंटवारा हो जाये तब इसे दल-बदल कानून के तहत देखा जाएगा। ऐसे हालातों में सदन का स्पीकर सर्वोच्च हो जाता है। फैसला लेने का अधिकार सदन के स्पीकर का हो जाता है।
इस स्थिति में चुनाव आयोग को फैसले का अधिकार
वहीं दूसरी स्थिति के दौरान जब सदन न चल रहा हो और किसी पार्टी में बंटवारा हो जाये तो यहाँ बंटवारा सदन के बाहर का होता है। उस दौरान दलों पर सिंबल आर्डर 1968 लागू होगा और चुनाव आयोग तय करेगा कि कौन सा खेमा पार्टी का चुनाव चिह्न इस्तेमाल कर सकता है।
सिंबल आर्डर 1968 के तहत ऐसे मामलों की सुनवाई चुनाव आयोग करता है। इस दौरान आयोग अपने विवेक के आधार पर चुनाव चिह्न और दल के नाम पर इस्तेमाल करने के बारे में फैसला करता है। इस दौरान वह पार्टी के विधायकों या सांसदों की संख्या को ध्यान में रखते हुए फैसला लेता है। इसके साथ ही वह दोनों गुटों के द्वारा उपलब्ध कराए गए सबूतों और कागजी दस्तावेजों को भीं ध्यान में रखता है।
महाराष्ट्र में भी यह स्थिति आना तय है। लेकिन बाला साहेब की शिवसेना का 'तीर-धनुष' अब कौन चलाएगा यह तो वक़्त ही बताएगा। हालांकि इसके लिए मौजूदा स्थिति तो एकनाथ शिंदे की ही मजबूत लगती है, लेकिन राजनीति में कब क्या बदल जाए यह कोई नहीं कह सकता।
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