Global Warming: विश्व भर में क्लाइमेट चेंज का असर अब सीधा असर दिखने लगा है। यूरोप में भीषण गर्मी यह बताती है कि मौसम कैसे तेजी से बदल रहे हैं। इस साल यूरोप 40 से 45 डिग्री तापमान चला गया था। यह आंकड़े हैरान कर देने वाले हैं। इस साल यूरोप में गर्मी इतनी पड़ेगी इसका किसी को अंदाजा नहीं था। वही जंगलों में आग भी यूरोप संघ के कई देशों के लिए चुनौती बना। क्लाइमेट चेंज का असर सिर्फ यूरोप में ही नहीं है। यूरोप के अलावा दुनिया के तमाम ऐसे देश हैं, जो क्लाइमेट चेंज का सामना कर रहे हैं। ग्रीन आईलैंड से लेकर हिमालय तक ग्लेशियर पिघल रहे हैं। इन वर्षों का पिघलना दुनिया के खत्म होने के लिए संकेत है।
नासा रखता है नजर
दरअसल, आर्कटिक महासागर में बर्फ पिघलने को लेकर एक रिपोर्ट सामने आई है, जिसमें बताया गया है कि पहले से कई गुना बर्फ कम हो चुके हैं। वही आर्कटिक का एक बड़ा हिस्सा जो बर्फ का मैदान हुआ करती थी। अब धीरे-धीरे महासागर में बदल रही है। गर्मी इतनी भीषण पड़ रही है कि इसका प्रभाव आर्कटिक महासागर तक पहुंच चुका है। इसमें कोई शक नहीं है कि धरती का तापमान दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहा है। साल 2022 में यहां सबसे कम बर्फ देखी गई। यहां न्यूनतम एवरेज से भी काफी कम मात्रा में आइस बचा हुआ है।
यह आइस कवर सिर्फ 4.67 मिलियन स्क्वायर किलोमीटर में रह गया है। जो 1981 से लेकर 2010 के मिनिमम आंकड़े से 1.55 मिलियन थे। नासा के मुताबिक, कुछ क्षेत्र को आईस कवर के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसमें बर्फ की सघनता कम से कम 15 फ़ीसदी है। वही इन भागों को नासा ट्रैक करता रहता है और अपने सैटेलाइट के जरिए इन इलाकों में विशेष रुप से ध्यान रखता है। जिसे पता चला है कि गर्मियों में बर्फ की मात्रा में काफी कमी आंकी गई है।
क्या होगा जब सारे ग्लेशियर पिघल जाए
एक अनुमान के मुताबिक, अगर धरती के सार बर्फ पिघल जाए तो समुद्र का जलस्तर 6 मिटर बढ़ सकता है, जिसके कारण पृथ्वी का एक हिस्सा रहने के लायक नहीं रहेगा। इसके आलाव धरती पर साफ पानी की किल्लत हो जाएगी। वही एक हिस्सा डूबने के बाद चपेट में सबसे पहले तटीय इलाके आएंगे। आपको बता दें कि करोड़ो साल से ग्लेशियर हमारे धरती पर मौजूद है। ग्लेशियर को तैयार होने में लाखों साल की समय लग जाती है। पृथ्वी जितने बर्फ मौजूद है। उसका 90 प्रतिशत हिस्सा ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका में है।
कैसे बनते हैं ग्लेशियर
ग्लेशियर उन ही क्षेत्रों में तैयार होते हैं, जहां हर साल मौसम माइनस में जाती है। सर्दियों के मौसम में बर्फबारी कई गूना अधिक होने लगती है। इसके बाद परत दर परत जमने लगती है। जिससे उसका घनत्व और भी बढ़ता जाता है। जब छोटे-छोटे बर्फ के टुकड़े अलग-अलग होने लगते हैं तो ये ग्लेशियर का रूप ले लेते हैं। आपको बता दें कि ग्लेशियर के ऊपर नई बर्फबारी होने से नीचे दबने लगते हैं और काफी कठोर हो जाते हैं। इसी प्रक्रिया को फर्न कहा जाता है।
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