Explained: डॉलर के मुकाबले फिर धड़ाम हुआ रुपया, 80.2 रुपये हुई 1$ की कीमत, जानिए आखिर क्या है इसका मतलब?
डॉलर से हम न केवल अमेरिका में बने सामान को खरीद सकते हैं बल्कि उस दूसरे सामान और सेवा (जैसे कच्चा तेल) का भी व्यापार करते हैं, जिसका आयात अमेरिकी डॉलर में होता है।
Highlights
- ऐतिहासिक स्तर पर कमजोर हो रहा रुपया
- रुपया कमजोर होकर 80 के पार गया
- अर्थव्यवस्था को लेकर जताई जा रही चिंता
Dollar Rupee Exchange Rate: भारतीय रुपया इस समय रिकॉर्ड स्तर पर लगातार गिर रहा है। खबर लिखे जाने तक 1 डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत 80.02 रुपये तक पहुंच गई है। जब से यूक्रेन में जंग शुरू हुई है, तभी से तेल के दाम आसमान छू रहे हैं और डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत तेजी से गिर रही है। इस बात की चिंता जताई जा रही है कि रुपये के कमजोर होने का हमारे देश की इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था पर आखिर क्या असर पड़ेगा। और इससे नीति निर्माताओं के सामने आखिर कौन सी चुनौतियां आएंगी। क्योंकि भारत पहले से ही बढ़ती महंगाई और कम ग्रोथ का सामना कर रहा है।
रुपया विनिमय दर क्या होती है?
रुपया विनिमय दर को हम रुपये एक्सचेंज रेट भी कहते हैं। यानी डॉलर की तुलना में रुपये की विनिमय दर अनिवार्य रूप से रुपये की संख्या है, मानो जिसके बदले किसी को 1 डॉलर खरीदना हो। डॉलर से हम न केवल अमेरिका में बने सामान को खरीद सकते हैं बल्कि उस दूसरे सामान और सेवा (जैसे कच्चा तेल) का भी व्यापार करते हैं, जिसका आयात अमेरिकी डॉलर में होता है।
आसान भाषा में कहें तो, जब रुपया गिरता है, जब जरूरी सामान और सेवाएं भी महंगी हो जाती हैं। लेकिन अगर देश किसी अन्य देश को सामान और सेवाओं का निर्यात करता है, खासतौर से अमेरिका को, तब भारत के उत्पाद अधिक प्रतिस्पर्धी हो जाते हैं, क्योंकि रुपये की कम कीमत इस सामान को विदेशी खरीदारों के लिए सस्ता बना देती है।
रुपये-डॉलर एक्सचेंज रेट और विदेशी मुद्रा भंडार क्यों गिर रहे हैं?
इसे समझने के लिए भारत का बैलेंस ऑफ पेमेंट (बीओपी) स्टेटमेंट समझना होगा। आसान शब्दों में कहें, तो बीओपी भारतीयों और विदेशियों के बीच सभी मौद्रिक लेनदेन यानी ट्रांजेक्शन का एक खाता होता है। यहां इसे अमेरिकी डॉलर के संदर्भ में दिखाया गया है। अगर कोई लेन-देन भारत में डॉलर लाता है, तो यह एक प्लस साइन होता है। अगर किसी लेन-देन का मतलब है कि डॉलर भारत से बाहर जा रहा है, तो इसे माइनस साइन के साथ दिखाया जाता है।
विभिन्न प्रकार के लेनदेन को समझने के लिए बीओपी के दो व्यापक सबहेड (जिसे "अकाउंट" भी कहा जाता है) होते हैं- करंट और कैपिटल। करंट अकाउंट को ट्रेड अकाउंट (सामान के निर्यात और आयात के लिए) और इनविजिबल्स अकाउंट (सेवाओं के निर्यात और आयात के लिए) में बांटा गया है। ऐसे में अगर कोई भारतीय अमेरिका में बनी कार खरीदता है, तो इसका मतलब होगा कि डॉलर बीओपी से बाहर जा रहा है। और इसे करंट अकाउंट के तहत आने वाले ट्रेड अकाउंट में शामिल किया जाएगा।
वहीं जब कोई अमेरिकी भारतीय शेयर बाजारों में निवेश करता है, तो डॉलर बीओपी टेबल में आएगा और इसे कैपिटल अकाउंट के भीतर पीएफआई के तहत रखा जाएगा। बीओपी के बारे में जरूरी बात यह है कि यह हमेशा "संतुलन" बनाने का काम करता है। विदेशी ऋण के मामले में भारत का व्यापार घाटा 189.5 बिलियन डॉलर था। यानी देश ने अपने निर्यात से अधिक माल (जैसे कच्चा तेल) का आयात किया, और नेट प्रभाव नकारात्मक था। लेकिन इनविजिबल्स अकाउंट में 150.7 बिलियन सरप्लस दिखाया गया। नतीजतन, करंट अकाउंट, जो बीते साल सरप्लस में था, 38.8 अरब डॉलर के घाटे में चला गया।
अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
भारत के आयात का एक बड़ा हिस्सा डॉलर के बदले आता है, तो ये सामान महंगा हो जाएगा। इसका एक अच्छा उदाहरण कच्चे तेल का आयात बिल हो सकता है। महंगा आयात बदले में व्यापार घाटे के साथ-साथ करंट अकाउंट घाटे को भी बढ़ाएगा, जो बदले में विनिमय दर पर दबाव डालेगा। हालांकि अगर द्विपक्षीय व्यापार की बात करें, तो बहुत से देश ऐसे भी हैं, जिनकी मुद्रा के सामने हमारा रुपया मजबूत है। डॉलर के माध्यम से होने वाले निर्यात में, चूंकि रुपया अकेली ऐसी मुद्रा नहीं है, जो डॉलर के मुकाबले कमजोर हो, तो नेट इफेक्ट इस बात पर निर्भर करेगा कि डॉलर के मुकाबले अन्य मुद्रा कितनी कमजोर हुई हैं।
करंट अकाउंट में 86.3 बिलियन डॉलर का सरप्लस था। जिसके पीछे का कारण बड़े पैमाने पर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) है, जो ऋण के रूप में अधिक डॉलर प्रदान करता है। फॉरन पोर्टफोलियो इन्वेस्टर्स (एफपीआई) ने इससे 16.8 बिलियन डॉलर निकाले हैं। साल के आखिर में बीओपी 47.5 बिलियन डॉलर के सरप्लस पर था। यानी करंट और कैपिटल अकाउंट पर सभी ट्रांजेंक्शन का 47.5 बिलियन डॉलर भारत में आया था। अब दो चीजें हो सकती हैं। अगर कुछ नहीं किया गया, तो इतना बड़ा सरप्लस डॉलर के मुकाबले रुपये को मजबूत करेगा। इससे लोगों की खरीदारी और निवेश की पहल में बदलाव आएगा।
उदाहरण के लिए भारत का निर्यात महंगा हो जाएगा और आयात सस्ता हो जाएगा। समय के साथ, व्यापार घाटा बीओपी के "संतुलन" में बदल जाएगा। दूसरी चीज, जो हो सकती है, वह ये है कि आरबीआई बाजार से सभी सरप्लस डॉलर को हटा दे और उसका इस्तेमाल अपने विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने के लिए करे। यह डॉलर खरीदकर और उन्हें रुपये से बदलकर ऐसा करता है। उदाहरण के लिए 2021-22 में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 47.5 बिलियन डॉलर बढ़ गया था। दरअसल ये दोनों चीजें साल भर होती रहती हैं। आरबीआई हर हफ्ते बीओपी की निगरानी करता है और इस तरह से काम करता है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि रुपये की विनिमय दर में बहुत अधिक उतार-चढ़ाव न हो। दूसरे शब्दों में, रुपये की विनिमय दर और विदेशी मुद्रा भंडार का स्तर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
नीति निर्माताओं को क्या करना चाहिए?
आरबीआई को महंगाई को नियंत्रित करने पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि यह कानूनी रूप से अनिवार्य है और सरकार को अपनी उधारी को रोकना चाहिए। सरकार द्वारा अधिक उधार (राजकोषीय घाटा) घरेलू बचत को कम करता है और बाकी आर्थिक एजेंट्स को विदेश से उधार लेने के लिए मजबूर करता है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज के अध्यक्ष सुदीप्तो मुंडले का कहना है, दोनों नीति निर्माताओं सरकार और आरबीआई को यह चुनना होगा कि उनकी प्राथमिकता क्या है- महंगाई को नियंत्रित करना या विनिमय दर और विदेशी मुद्रा स्तर पर अधिक ध्यान देना।
ऐसा भी कह सकते हैं कि दुनिया में डॉलर की मांग जितनी अधिक बढ़ेगी, उतनी ही स्थानीय मुद्रा गिरेगी। अगर निर्यात कम हो और आयात अधिक, तो ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है। इसके अलावा अगर विदेशी निवेशक देश से बाहर जाएं, तो भी विदेशी मुद्रा की कमी हो सकती है।