नई दिल्ली: दिल्ली हाई कोर्ट ने मातृत्व अवकाश (मैटरनिटी लीव) पर गई एक महिला कर्मचारी को नौकरी से निकाले जाने के मामले में अहम फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा कि एक महिला कर्मचारी को मातृत्व लाभ देने से इनकार करना अमानवीय और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों और उसके मौलिक अधिकारों के विरुद्ध है। कोर्ट की यह टिप्पणी दिल्ली यूनिवर्सिटी द्वारा मैटरनिटी लीव पर गई एक महिला संविदा कर्मचारी की सेवाएं समाप्त करने के फैसले को मनमाना करार देते हुए की।
कोर्ट ने मुआवजा देने को भी कहा
जस्टिस चंद्र धारी सिंह ने कहा कि महिला की सेवाएं, जिसने फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी है, बिना किसी नोटिस के समाप्त करने की संस्थान की कार्रवाई को बरकरार नहीं रखा जा सकता है और किसी महिला कर्मचारी को मातृत्व लाभ देने से केवल इसलिए इनकार नहीं किया जा सकता कि उसकी नियुक्ति संविदा पर थी। चूंकि महिला की सेवा को ‘अवैध रूप से समाप्त’ किया गया था, इसिलए जज ने अधिकारियों को उसे बहाल करने और मुआवजे के रूप में 50,000 रुपये की राशि का भुगतान करने का निर्देश दिया।
2018 में हुई थी महिला की तैनाती
रिपोर्ट्स के मुताबिक, याचिकाकर्ता को 2018 में तदर्थ आधार पर दिल्ली यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में एक महिला परिचारक के रूप में तैनात किया गया था। उसने अदालत को बताया कि उसके मातृत्व अवकाश को अधिकारियों द्वारा मंजूरी दे दी गई थी, लेकिन अवकाश की अवधि के दौरान उसे अपना वेतन नहीं मिला और दोबारा काम पर लौटने पर उसे बताया गया कि उसकी सेवाएं समाप्त कर दी गई हैं। कोर्ट ने कहा कि दिल्ली यूनिवर्सिटी द्वारा जारी एक अधिसूचना के मुताबिक, 26 हफ्ते की ‘पेड मैटरनिटी लीव’ उन महिलाओं को दी जानी चाहिए जो संविदा या तदर्थ आधार पर कार्यरत हैं।
‘याचिकाकर्ता पर नीति लागू होती है’
अदालत ने कहा कि रिकॉर्ड से यह स्पष्ट है कि याचिकाकर्ता वास्तव में संविदा पर कार्यरत थी और उसका कार्यकाल आगे बढ़ाया गया था जिससे उस पर यह नीति लागू होती है। (भाषा)
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