परिवार, दोस्तों और अन्य कश्मीरियों ने नम आंखों से माखनलाल बिंद्रू को अंतिम विदाई दी
68 वर्षीय माखनलाल पिछले 31 वर्षों से हर अमीर-गरीब की मदद कर रहे थे और जरूरतमंद लोगों को नि:शुल्क दवा देते थे।
श्रीनगर: जम्मू और कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में मंगलवार को आतंकियों द्वारा हमले में मारे गए दवा व्यवसायी माखनलाल बिंद्रू के आवास पर बुधवार को समाज के सभी तबके के लोग श्रद्धांजलि देने के लिए एकजुट हुए। उनका परिवार जब अंतिम संस्कार की तैयारियां कर रहा था, उस समय लोग कई तरह के नारे लगा रहे थे। उनकी पत्नी ने गुस्से में कहा, ‘आज धरती से उन्हें हिंदुओं के साथ-साथ मुसलमान भी विदा कर रहे हैं। वह मानवता के लिए जिए। उन्होंने आप लोगों की सेवा की। उनकी हत्या क्यों की गई? उनकी गलती क्या थी?’
‘बिंद्रू एकता की मिसाल थे’
शोक व्यक्त करने पहुंचे कई लोगों ने कहा कि बिंद्रू एकता की मिसाल थे और श्रीनगर में सबके लिए जाना-पहचाना चेहरा थे। जाने-माने कश्मीरी पंडित को इंदरा नगर स्थित उनके आवास पर श्रद्धांजलि देने आए घाटी भर के लोगों में से कुछ की आंखें नम थीं। वह उन कश्मीरी पंडितों में थे जो घाटी में तनाव और अस्थिरता के दौर में भी रुके रहे। उनकी बेटी श्रद्धा बिंद्रू ने गुस्से में कहा, ‘मैं आंसू नहीं बहाऊंगी। मैं माखनलाल बिंद्रू जी की बेटी हूं। उनका शरीर गया है, आत्मा नहीं।’
‘आप केवल पथराव करना जानते हैं’
चंडीगढ़ के एक अस्पताल में एसोसिएट प्रोफेसर श्रद्धा ने अपने पिता के हत्यारों को चुनौती देते हुए कहा, ‘अगर आपमें ताकत है तो आईए मेरे साथ बहस कीजिए। आप नहीं करेंगे। आप केवल इतना जानते हैं कि कैसे पथराव किया जाता है और कैसे गोलीबारी की जाती है।’ श्रद्धा ने कहा कि उनके पिता ने साइकिल पर व्यवसाय शुरू किया था और उनके डॉक्टर भाई तथा उन्हें वहां तक पहुंचने में मदद की जहां आज वे हैं। उन्होंने कहा कि उनकी मां दुकान पर बैठती हैं और लोगों की सेवा करती हैं।
बेटे सिद्धार्थ और बेटी श्रद्धा ने चिता को मुखाग्नि दी
कई लोगों ने बताया कि 68 वर्षीय माखनलाल पिछले 31 वर्षों से हर अमीर-गरीब की मदद कर रहे थे और जरूरतमंद लोगों को नि:शुल्क दवा देते थे। बिंद्रू गुड़गांव के मेदांता अस्पताल में ऊंची तनख्वाह पा रहे अपने बेटे को लोगों की सेवा के लिए कश्मीर लेकर आए। उनके घर से पार्थिव शरीर को करण नगर शमशान घाट ले जाया गया जहां उनके बेटे सिद्धार्थ और बेटी श्रद्धा ने चिता को मुखाग्नि दी। 1992 में प्रख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता एच. एन. वानछू की हत्या के बाद संभवत: यह पहला मौका है, जब समूची घाटी से लोग किसी की मौत का मातम मनाने के लिए एकत्र हुए।