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BLOG: मौत से जंग लड़ने वाले सीवर के सैनिक

50 साल के युसूफ की पूरी जिंदगी सीवर साफ करने में बीती... इसी गंदे सीवर ने उनके दोनों बेटों की जान ले ली...दिल्ली के एक स्लम में युसूफ के सामने उसके दोनों बेटों के शव पड़े हैं।

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50 साल के युसूफ की पूरी जिंदगी सीवर साफ करने में बीती... इसी गंदे सीवर ने उनके दोनों बेटों की जान ले ली... दिल्ली के एक स्लम में युसूफ के सामने उसके दोनों बेटों के शव पड़े हैं। हालत ये हैं कि  24 साल के जहांगीर और 22 साल के इजाज के अंतिम संस्कार के लिए युसूफ के पास पैसे नहीं हैं। किसी तरह चंदा जुटाया गया और दोनों जवान बेटों को युसूफ ने अपने हाथों से दफ्न कर दिया...ये हकीकत हैं उन सफाईकर्मियों की जो गंदगी साफ करने के लिए कई कई फुट गहरे, गंदे, बदबू से बजबजाते गटर में उतरते हैं।

वे पूरे शहर की गंदगी साफ करते हैं लेकिन इनके नसीब में सिर्फ मौत लिखी हुई होती है। युसूफ खुद को भाग्यशाली मानते हैं जो 50 साल तक जिंदा रह गए नहीं तो जितने दिन उनके बेटे इस दुनिया में रहे औसतन उतने ही दिन सीवर में उतरने वाले सफाईकर्मी के बंधे होते हैं। राजधानी दिल्ली में पिछले एक महीने में जहांगीर और इजाज की ये आठवीं और नौवीं मौत थी। इससे पहले के आंकड़ों पर गौर करेंगे तो सैकड़ों सफाईकर्मियों की मौत के आंकड़े आपको दहला देंगे।

सीवर में उतरकर गटर साफ करने वाले लोग कहते हैं कि जिंदगी और मौत में से उन्होंने खुद के लिए मौत चुनी है। आम जनता की जिंदगी सीवर के ढक्कनों के ऊपर गुलजार रहती है लेकिन सफाईकर्मियों की एक दुनिया इन ढक्कनों के नीचे हैं, जहां वो तब उतरते हैं जब कोई कॉलोनी 12 घंटे से चोक हो गई सीवर के लिए त्राहिमाम कर रही होती है। कोई ये सोच भी नहीं सकता जिन सड़कों पर हम चल रहे हैं, ठीक उसी के नीचे कोई सफाई के दामों के लिए मर भी रहा होगा। इनके लिए  सफाई के सैनिक की जुमलेबाजी हो सकती है लेकिन असल में ये सैनिक नहीं हैं इसलिए शहीद भी नहीं माने जा सकते लेकिन इतना तय है कि किसी भी सीवर के ढक्कन पर इनकी मौत लिखी हुई हो सकती है।

दिल्ली में सीवर साफ करने वाले लोगों के मौत के आंकड़ें चौंकाने वाले हैं। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि पूरे देश में मौत का ये आंकड़ा कितना होगा। ये तब है जब सुप्रीम कोर्ट हाथ से गंदगी साफ करने पर बैन लगा चुका है। ये तब है जब अदालतें सरकारों से रोज रोज ये कहती हैं कि सीवर में उतरने वालों को लाइफ सेविंग किट के साथ गटर में भेजा जाए। दिल्ली की सच्चाई समझकर पूरे देश के हाल का अंदाजा लगाया जा सकता है। सीवर के अंदर अमोनिया, सल्फर डाई ऑक्साइड, कॉर्बन मोनो ऑक्साइड, हाइड्रोजन सल्फाइड जैसी जहरीली गैस होती हैं। ढक्कन खोलकर सफाईकर्मी के लिए ये अंदाजा लगाना मुश्किल है कि अंदर कितनी जहरीली गैसें हो सकती है।

सफाईकर्मी जब सीवर में उतरता है तभी वो अंदाजा लगा सकता है कि अंदर गैस की तादात कितनी है। जहरीली गैसों की मौजूदगी की हालत में वो लोग भाग्यशाली होते हैं जो समय रहते खतरे को भांप लेते हैं। जो ऐसा नहीं कर पाते वो फिर उस छोटे से ढक्कन के ऊपर कभी नहीं आ पाते। दिल्ली में दो तरह के सफाई कर्मचारी हैं, एक सरकारी और दूसरे ठेके पर...सैलरी के मामले में दोनों श्रेणी के कर्मचारियों में फर्क हो सकता है लेकिन  सुविधाओं के मामले में कोई फर्क नहीं है। दोनों श्रेणी के कर्मचारी जब सीवर में उतरते हैं तो किसी के पास भी न ही ऑक्सीजन मास्क होता है, न ही दस्ताने होते हैं और न ही बूट होता है। इस किट की कीमत करीब 40 से 60 हजार के बीच है।

नगर निगम के पास किट खरीदने का बजट अलग से होता है। किट कागजों में नजर आता है लेकिन सीवर में नहीं...अगर किट होगा तो जान भी बचेगी और सीवर भी साफ होंगे। ठेके पर काम करने वाले सफाई कर्मचारियों के लिए ठेकेदार किसी सामंत से कम नहीं है। सफाई कर्मचारियों को बेहद कम दिहाड़ी दी जाती है और काम भी ऐसा नहीं है जो रोज रोज निकल आए...ऊपर से जान जाने का जोखिम अलग से। जिन नौ लोगों की पिछले एक महीने में मौत हुई वो सभी ठेके के कर्मचारी थे।

सीवर की सफाई इकलौता ऐसा रोजगार होगा जिसमें पहले दिन से लेकर अब तक कुछ भी नहीं बदला। यूरोप में सबसे पहले सीवर का इस्तेमाल किया गया। एलीट यूरोपियन्स ने खुद की साफ सफाई के लिए सीवर बनाई और गुलामों को सीवर की सफाई के लिए तैनात किया। भारत में सीवर अंग्रेजों की देन हैं। भारतीय समाज में दलित पहले से ही अछूत समझे जाते थे इसलिए सीवर की सफाई का जिम्मा बिना किसी हिचक के दलितों के नसीब में ही थोप दिया गया। अब भी इस धंधे में ज्यादातर दलित ही हैं जो पीढ़ियों से इस काम को कर रहे हैं। कई सदी पहले उनके बाप दादा भी सीवर में बिना सुरक्षा उपकरणों के उतरते थे...वो खुद आज भी बिना सुरक्षा उपकरणों के ही सीवर में उतरते हैं।

आकाश में भारत ऊंचाई छू सकता है..कई कई सेटेलाइट छोड़ सकता है लेकिन पाताल में अब भी ऐसे ही लोग छोड़े जाते हैं जो शोषितों की श्रृंखला को आगे ले जा रहा है।

सफाई कर्मचारी न ही गटर के अंदर सामान्य जिंदगी जी सकता है और न ही बाहर... मल मूत्र और गंदे रसायनों के संपर्क में आने से उन्हें त्वचा से जुड़े कई सारे रोग हो जाते हैं..इनमें वो रोग भी हैं जिनका इलाज संभव ही नहीं है। जहरीली गैसों के संपर्क में आने से सांस की दिक्कतें आम हो जाती हैं। लीवर और पेट से जुड़ी हुई बीमारियों भी लग जाती है इन सीवर कर्मचारियों को... समाज की गंदगी को साफ करते करते इनका खुद का अस्तित्व मिट जाता है।

(इस ब्लॉग के लेखक संजय बिष्ट पत्रकार हैं और देश के नंबर वन हिंदी न्यूज चैनल इंडिया टीवी में कार्यरत हैं)

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