Rajat Sharma’s Blog: भारत बंद ज्यादातर राज्यों में क्यों हुआ फ्लॉप?
कृषि कानूनों को लेकर केंद्र सरकार और किसानों के बीच जारी गतिरोध को खत्म करने की कोशिश मंगलवार रात विफल रही, इसके कारण आज होने वाली छठे दौर की बातचीत भी अधर में लटक गई। दिल्ली की सीमा पर किसानों का यह आंदोलन आज अपने 14 वें दिन में प्रवेश कर गया है।
कृषि कानूनों को लेकर केंद्र सरकार और किसानों के बीच जारी गतिरोध को खत्म करने की कोशिश मंगलवार रात विफल रही, इसके कारण आज होने वाली छठे दौर की बातचीत भी अधर में लटक गई। दिल्ली की सीमा पर किसानों का यह आंदोलन आज अपने 14 वें दिन में प्रवेश कर गया है। नई दिल्ली के पूसा स्थित राष्ट्रीय कृषि विज्ञान परिसर में गृह मंत्री अमित शाह, तीन अन्य केंद्रीय मंत्रियों और कुछ चुने हुए किसान नेताओं के बीच देर शाम चार घंटे तक चली बैठक में किसान नेता तीनों नए कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग पर अड़े रहे। केंद्र सरकार ने कानून वापिस लेने की मांग को खारिज कर दिया और कहा कि वह कृषि कानूनों में संशोधन के लिए नए प्रस्ताव भेजेगी।
केंद्र और किसानों के बीच यह बातचीत उसी दिन हुई जिस दिन किसान नेताओं ने भारत बंद का आह्वान किया था और इसे 22 राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त था। पंजाब, हरियाणा, झारखंड, बिहार, बंगाल, मध्य प्रदेश, पश्चिमी यूपी, कर्नाटक, राजस्थान जैसे राज्यों में इस बंद का आंशिक असर देखने को मिला जबकि केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और ओडिशा जैसे राज्यों में इसका असर रहा । वहीं दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता और बेंगलुरु जैसे महानगरों में इस बंद का सामान्य जन-जीवन पर कोई खास असर देखने को नहीं मिला।
कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, तेलंगाना राष्ट्र समिति, तृणमूल कांग्रेस और वामपंथी दलों ने बंद को सफल बनाने के लिए काफी कोशिश की। इन दलों के कार्यकर्ताओं ने सड़कों पर प्रदर्शन किया और सड़क, रेल यातायात को रोकने की कोशिश की। इन पार्टियों ने बंद के लिए पूरी ताकत लगाई लेकिन लोगों ने उनकी बातें ज्यादा नहीं सुनी। ज्यादातर राज्यों में व्यापारिक प्रतिष्ठान और दफ्तर खुले रहे। मंगलवार रात अपने प्राइम टाइम शो 'आज की बात' में हमने दिल्ली, मुंबई, लखनऊ, बेंगलुरु और कई अन्य शहरों में बाजार खुले रहने के दृश्य दिखाए।
राजस्थान के भीलवाड़ा और जयपुर में व्यापारियों ने उन कांग्रेस कार्यकर्ताओं का विरोध किया जो बाजार बंद कराने की कोशिश कर रहे थे। भीलवाड़ा के आजाद चौक पर कांग्रेस कार्यकर्ता बाजार बंद कराने के लिए पहुंचे थे। दुकानदारों से किसानों के समर्थन में बाजार बंद करने को कहा। लेकिन जैसे ही कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने मोदी सरकार के खिलाफ नारे लगाए तो कुछ दुकानदारों ने विरोध किया। कांग्रेस कार्यकर्ताओं और दुकानदारों के बीच बहस हुई। लेकिन जब कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने सत्ता की धौंस दिखाने की कोशिश की तो दुकानदारों ने 'मोदी-मोदी' के नारे लगाने शुरू कर दिए। हालत ये हो गई कि पुलिस को बीच बचाव करना पड़ा। जयपुर में भी कांग्रेस कार्यकर्ता दुकानें बंद कराने पहुंचे थे। कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने जब जबरदस्ती दुकानें बंद करवाने की कोशिश की तो दुकानदार भड़क गए। कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने जब मोदी सरकार के खिलाफ नारे लगाए तो दुकानदारों ने 'मोदी-मोदी' के नारे लगाने शुरू कर दिए।
मध्य प्रदेश में राजगढ़ के ब्यावरा में भी कांग्रेस के कार्यकर्ता दुकानें बंद करवा रहे थे। चूंकि कांग्रेस के विधायक भी कार्यकर्ताओं के साथ थे इसलिए ज्यादातर दुकानदारों ने अपनी दुकान बंद कर दी। लेकिन एक दुकानदार सामने आया और बोला-एक दिन तो दूर, एक घंटा या एक मिनट के लिए भी दुकान बंद नहीं होगी। इस दुकानदार ने कांग्रेस नेताओं को जमकर खरी -खोटी सुनाई। कांग्रेस के विधायक के सामने ही दुकानदार ने कृषि सुधार कानूनों को सही ठहराया और कहा कि कांग्रेस की लूट बंद हो रही है इसलिए कांग्रेस कानून का विरोध कर रही है।
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने बाजार बंद कराने की बजाय दूसरा फॉर्मूला अपनाया। स्टेशन पर या स्टेशन से दूर आउटर सिंगनल पर खड़ी ट्रेन के इंजिन पर समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता चढ़ गए। कुछ इंजिन के आगे पटरी पर बैठ गए। नारेबाजी की, वीडियो बनाया, फोटो खिंचवाईं फिर उसे पार्टी के दफ्तर में भेज दिया और घऱ चले गए। इसी तरह की तस्वीरें प्रयागराज में देखने को मिली।
इन तस्वीरों से आप समझ सकते हैं कि देश की आम जनता, दुकानदार, दफ्तर जानेवालों ने भारत बंद का ज्यादा साथ क्यों नहीं दिया। असल में लोग समझ गए कि विरोधी दलों के नेताओं का किसानों से कोई खास मतलब नहीं है। वो तो अपनी फोटो खिंचवाने और पार्टी का झंडा उठवाने के लिए आए थे। विरोधी दलों के बड़े-बडे नेताओं को इस बात का एहसास हुआ कि मोदी की लोकप्रियता कायम है और लोगों को मोदी पर भरोसा है। इसकी वजह ये भी है मोदी सरकार के मंत्री लगातार किसानों से बात कर रहे हैं।
अब ये समझने की जरुरत है कि भारत बंद के आह्वान का ज्यादा असर क्यों नहीं हुआ? पहली बात तो ये कि इस बंद का आह्वान तो किसान संगठनों ने किया था पर इसमें राजनैतिक दल घुस गए। किसानों से तो लोगों की सहानुभूति है, पर बंद कराने सड़कों पर उतरे कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को लोग शरारती मानते हैं। लोगों को साफ लगा कि नेता अपने स्वार्थ, अपने फायदे के लिए बंद करवा रहे हैं, 'रेल रोको' और 'रास्ता रोको' का नारा दे रहे हैं। किसानों के आंदोलन को राजनीतिक दलों ने हाइजैक कर लिया है। आपने देखा होगा जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं वहां कांग्रेस ने और जहां दूसरे विरोधी दलों की सरकारें हैं वहां उन्होंने भी अपनी अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं की फौज मैदान में उतार दी। आपको आश्चर्य होगा कई जगह लोगों ने 'मोदी-मोदी' के नारे लगाए। कई जगह दुकानदारों ने साफ कहा कि हम बंद का समर्थन नहीं करते।
दूसरी बात ये कि भारत के आम लोगों को मोदी के नेतृत्व पर भरोसा है और वे जानते हैं कि सरकार ईमानदारी से किसानों द्वारा उठाए गए मुद्दों को हल करने की कोशिश कर रही है। उन्होंने किसानों की किसी मांग को ठुकराया नहीं है बल्कि रास्ता निकालने की कोशिश की जा रही है। हो सकता है कि नीति में कमी हो लेकिन मोदी की नीयत में खोट नहीं है।
तीसरी बात ये है कि पिछले आठ महीने से लोग कोरोना की वजह से लगी पाबंदी से परेशान हैं। बड़ी मुश्किल से दुकानें खुली हैं, दफ्तर खुले हैं। लोगों ने बहुत नुकसान उठाया है। अब लोग और परेशानी नहीं उठाना चाहते।
किसान पिछले 14 दिनों से सर्दी में सड़क पर बैठे हैं। वे खेती और अपना काम छोड़कर दिल्ली के बॉर्डर पर धरना दे रहे हैं। आम लोगों में किसानों के प्रति हमदर्दी भी है इसलिए ये लग रहा था कि किसानों के बंद कॉल का असर होगा, लेकिन बंद बेअसर सिर्फ इसलिए रहा क्योंकि इसमें सियासत घुस गई। नेताओं ने किसानों के आंदोलन का इस्तेमाल करके अपनी पार्टी का चेहरा चमकाने की कोशिश की। मोदी को घेरने की कोशिश की। इसलिए भारत बंद को आम जनता का समर्थन नहीं मिला। इसके अलावा पंजाब, यूपी, मध्य प्रदेश, हरियाणा समेत अन्य राज्यों में किसान रबी फसलों की बुवाई में व्यस्त हैं। उनके पास अपना काम छोड़कर दिल्ली में धरने पर बैठने का समय नहीं है। इन किसानों का कहना है कि उन्हें खेती छोड़कर दिल्ली जाने की फुरसत कहां है।
मुझे सूत्रों से यह जानकारी मिली है कि दिल्ली आए किसानों के बहुत सारे नेताओं को भी ये अहसास हो गया कि सरकार की मंशा खराब नहीं है। सरकार ने जो तीन नए कानून बनाए हैं उनमें वो सारे अमेंडमेंट्स (संशोधन) करने को तैयार हैं, जो किसान चाहते हैं। लेकिन किसान नेताओं की दिक्कत ये है कि उनकी आवाज एक नहीं है। उनमें कई ग्रुप और कई नेता हैं। अपने आपको बड़ा नेता साबित करने के लिए इनमें से हर नेता सरकार के खिलाफ कड़े से कड़ा स्टैंड लेना चाहता है जो ऐसे आंदोलन में लोकप्रियता दिलाता है। इस जोश में किसानों ने हां या ना की बात कह दी। इन नेताओं ने ये कह दिया कि या तो तीनों कानून वापस लो वरना कोई बात नहीं होगी।
अब किसान भी ये जानते हैं कि ये मांग नहीं मानी जा सकती। रास्ता बीच का निकलना है। अब ऐसे में किसान नेताओं को किसी फेस सेविंग (चेहरा बचानेवाले) फैसले की जरूरत पड़ी ताकि वे अपने समर्थकों के बीच यह कह सकें कि हमने लड़ाई जीत ली है। कुछ किसान नेताओं ने मांग की थी कि प्रधानमंत्री उनसे मिलें लेकिन फिर गृह मंत्री अमित शाह से वो बात करने को तैयार हो गए। इस बातचीत के बाद कृषि कानूनों में संशोधन का एक प्रस्ताव केंद्र सरकार की ओर से किसानों को भेज दिया गया है। अब फैसला पूरी तरह किसान नेताओं के हाथ में है।