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Hindi News भारत राष्ट्रीय Rajat Sharma’s Blog: किसान नेताओं और केंद्र के बीच बातचीत की डोर किसने तोड़ी?

Rajat Sharma’s Blog: किसान नेताओं और केंद्र के बीच बातचीत की डोर किसने तोड़ी?

मुझे हैरत इस बात पर नहीं हुई कि राहुल गांधी ने अंबानी-अडानी को किसानों का दुश्मन और मोदी का दोस्त बताया। आश्चर्य इस बात पर हुआ कि कुछ किसान संगठनों के नेता यही भाषा बोलते हुए सुनाई दिए।

Rajat Sharma Blog, Rajat Sharma Blog on Farm Bills, Rajat Sharma Blog on Farmers- India TV Hindi Image Source : INDIA TV India TV Chairman and Editor-in-Chief Rajat Sharma.

किसान नेताओं और केंद्र के बीच बातचीत की डोर बुधवार को उस समय टूट गई जब किसान संगठनों ने नए कृषि कानून में संशोधन के सरकार के प्रस्ताव को सिरे से खारिज करते हुए यह ऐलान किया कि वे अपने आंदोलन को और तेज करेंगे। किसानों के रुख पर थोड़ी हैरानी और थोड़ा दुख भी हुआ। सरकार चाहती है कि बातचीत से बीच का रास्ता निकले लेकिन किसान 'हां या ना’ पर अड़े हैं। किसान कह रहे हैं कि बातचीत से इनकार नहीं है, लेकिन बात तभी बनेगी जब सरकार तीनों कृषि सुधार कानून वापस ले। 

सरकार का रुख बिल्कुल साफ है कि तीनों कानूनों को वापस नहीं लिया जाएगा। सरकार का कहना है कि किसानों की चिंताओं को दूर किया जाएगा। कानूनों में संशोधन भी हो सकता है लेकिन चुनी हुई सरकार को झुकाने की नीयत से हो रही सियासी कोशिशों को कामयाब नहीं होने दिया जाएगा। सरकार टूटे तारों को जोड़ने की कोशिश कर रही थी। किसान संगठनों के साथ बातचीत जारी रखने की पूरी कोशिश कर रही थी लेकिन किसानों ने जंग का ऐलान कर आर-पार की बात कर दी। 

कौन हैं वे नेता जो किसान संगठनों के नेताओं को बात करने से रोक रहे हैं? क्या वजह कि बात नहीं बन रही है? किसानों ने बुधवार को जिस धमकी भरे अंदाज में बात की उसे देख कर हैरत हुई। क्योंकि जो डॉयलॉग अब तक राहुल गांधी रैलियों में बोल रहे थे और ट्विटर पर लिख रहे थे हू-ब-हू, शब्दश: वही डॉयलॉग किसान संगठनों के नेताओं के मुंह से निकले। जो बातें किसान नेताओं ने कहीं वही बातें राहुल गांधी और शरद पवार सहित पांच विपक्षी नेताओं ने राष्ट्रपति से मिलने के बाद कही। कुल मिलाकर ऐसा लग रहा है कि जैसे 22 विरोधी दल मिलकर किसान संगठनों और सरकार के बीच टकराव चाहते हैं। एक बार फिर शाहीन बाग जैसे हालात बनाने की कोशिश हो रही है। एक बार फिर एंटी सीएए जैसा माहौल बनाने की तैयारी हो रही है। 

अब सवाल उठता है कि आखिर सरकार ने ऐसी कौन सी बात कह दी जिससे किसान संगठनों के नेता अचानक नाराज हो गए?  वे बातचीत से पीछे हट गए और आर-पार की बात करने लगे। दरअसल, सरकार ने जो 21 पेज का प्रस्ताव किसान नेताओं को भेजा था उस प्रस्ताव के आने से पहले ही किसान संगठनों के नेता तय कर चुके थे कि अब आंदोलन का रास्ता ही अख्तियार करना है। अगर सरकार बात करती है तो मीटिंग से इंकार नहीं करेंगे लेकिन अब आंदोलन को देशभर में फैलाया जाएगा। ये बात मैं नहीं कह रहा हूं। ये खुलासा भी किसान संगठनों के नेताओं ने खुद ही किया। असल में मंगलवार शाम को ही सरकार की तरफ से किसान नेताओं को अनौपचारिक बातचीत का न्योता भेजा गया था। इस बैठक में गृह मंत्री अमित शाह के साथ मीटिंग रखी गई। कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर और वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल भी मौजूद थे। सरकार को उम्मीद ये थी कि किसान संगठनों से बातचीत करके कोई बीच का रास्ता निकल आएगा लेकिन किसान नेताओं ने बात शुरू होने से पहले ही कह दिया कि बातचीत का फायदा नहीं है क्योंकि वे कानून में संशोधन नहीं चाहते हैं। सरकार कानून ही वापस ले ले तभी बात बनेगी। इसके बाद भी सरकार के सबसे वरिष्ठ मंत्रियों ने किसान नेताओं को समझाने की कोशिश की, मनाने की कोशिश की लेकिन बात नहीं बनी।

असल में मंगलवार रात अमित शाह की मीटिंग सिर्फ 5-6 किसान संगठनों के नेताओं से होनी थी। ये वो लोग हैं जिनका ओपन माइंड (खुले विचार वाले) हैं और जो ये समझते हैं कि ये आंदोलन हमेशा तो नहीं चल सकता, इसलिए बीच का रास्ता निकालना चाहिए। ये किसान नेता प्रधानमंत्री मोदी के प्रति अच्छी भावना रखते हैं। उन्होंने ये कहा भी है कि मोदी के बारे में कोई कुछ भी कह सकता है लेकिन ये नहीं कहा जा सकता कि वे किसानों के विरोधी हैं। इसीलिए उम्मीद थी कि इस मीटिंग में रास्ता निकलेगा, लेकिन जब बाकी नेताओं को पता चला तो उन्होंने इस मीटिंग में ऐसे लोगों को घुसा दिया जो सरकार के घोर विरोधी हैं। जिनके सामने खुलकर बात नहीं हो सकती। जो किसान नेता पॉजटिव माइंड (सकारात्मक सोच) के साथ बात करने आए थे वो भी चुप रहे। इसीलिए भले अभी रास्ता नहीं निकला है, लेकिन उम्मीद अभी भी बाकी है।

केंद्र ने बुधवार को किसानों को भेजे गए अपने प्रस्ताव में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और एपीएमसी 'मंडियों' को जारी रखने के लिए लिखित आश्वासन देने का वादा किया। प्रस्ताव में कहा गया है कि सरकार मांग के मुताबिक किसानों को एमएसपी पर लिखित भरोसा देगी। एपीएमसी एक्ट में हुए बदलाव के कारण किसानों को लग रहा है कि प्राइवेट मंडियों के खुलने से पुराना मंडी सिस्टम खत्म हो जाएगा और किसान पूरी तरह प्राइवेट प्लेयर या कॉरपोरेट पर निर्भर हो जाएंगे। सरकार ने किसानों को भरोसा दिया है कि मंडियां पहले की तरह चलती रहेंगी। किसानों को इस बात पर भी आपत्ति थी कि कानून के मुताबिक किसी प्राइवेट फर्म, कंपनी या व्यक्ति को किसानों की उपज खरीदने के लिए किसी तरह के लाइसेंस की जरूरत नहीं होगी। सरकार ने किसानों की इस आपत्ति को भी दूर करने की कोशिश की। बुधवार को जो प्रस्ताव भेजा गया उसमें सरकार ने कहा कि कानून में रजिस्ट्रेशन का प्रावधान जोड़ा जाएगा। राज्य सरकारों को नई प्राइवेट मंडियों का रजिस्ट्रेशन का अधिकार दिया जाएगा और प्राइवेट मंडियों से टैक्स भी वसूला जाएगा। 

किसानों के मन में एक बड़ी आशंका अपनी जमीन को लेकर भी है। किसानों को लगता है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के लिए सरकार की तरफ से जो प्रावधान किए गए हैं उनके जरिए बड़े कॉरपोरेट किसानों की जमीन पर कब्जा कर लेंगे। सरकार के प्रस्ताव में कहा गया है कि कोई कंपनी या व्यक्ति किसान के साथ जो करार करेगा उसमें किसान की जमीन की बिक्री, लीज या मार्टगेज करने का अधिकार किसी कंपनी को नहीं होगा। किसान के साथ करार करने वाली कंपनी किसान की जमीन पर किसी तरह का पक्का निर्माण नहीं कर सकती। अगर ये जरूरी है...तो करार खत्म होते ही उसे हटाना होगा।अगर तय वक्त में नहीं हटाया तो उसका मालिकाना हक किसान का होगा और किसान की जमीन पर या उस जमीन पर किए गए निर्माण पर कोई व्यक्ति या कंपनी किसी तरह का लोन नहीं ले सकेगी। 

किसान संगठन पराली जलाने को लेकर बने कानून को भी नरम करने की मांग कर रहे हैं। किसान चाहते हैं कि सरकार एयर क्वॉलिटी मैनेजमेंट आफ एनसीआर आर्डिनेंस, 2020 को खत्म करे। इस कानून के तहत पराली जलाने पर जुर्माने और आपराधिक कार्रवाई का प्रावधान है। सरकार की तरफ से किसानों को लिखित प्रस्ताव दिया गया है कि इस विधेयक को लेकर किसानों की आपत्तियों का हल निकाला जाएगा।

केंद्र के प्रस्तावों को नामंजूर करते हुए किसान नेताओं ने अंबानी और अडानी ग्रुप के उत्पादों का बहिष्कार करने का आह्वान किया। इन लोगों ने बीजेपी के नेताओं का घेराव करने का भी ऐलान किया। ये बातें किसानों के आंदोलन का हिस्सा कैसे हो सकती हैं? ऐसा लग रहा है जैसे किसान आंदोलन नहीं सियासी आंदोलन हो रहा है। दरअसल, किसान आंदोलन में अब राजनीति घुस गई है। किसानों के आंदोलन को मोदी विरोधी नेताओं ने हाईजैक कर लिया है।

असल में जिस वक्त किसान संगठनों की प्रेस कॉन्फेंस चल रही थी उसी वक्त राहुल गांधी (कांग्रेस), शरद पवार (एनसीपी), सीताराम येचुरी (सीपीएम),  इलनगोवन (डीएमके) और डी राजा (सीपीआई) किसानों के मुद्दे पर राष्ट्रपति से मिलने पहुंचे। इन लोगों ने भी राष्ट्रपति से कृषि सुधार कानूनों पर रोक लगाने की मांग की। राष्ट्रपति से मुलाकात के बाद बाहर निकलने पर राहुल गांधी ने वही बातें कही जो किसान संगठनों के नेताओं ने कही थी। राहुल गांधी ने कहा कि सरकार ने अडानी-अंबानी को फायदा पहुंचाने के लिए कानून बनाया। इस कानून को रद्द करने की जरूरत है। राहुल ने कहा कि मोदी को किसानों की ताकत का अंदाजा नहीं है, किसान डरने वाला नहीं है। जब तक कानून वापस नहीं लिया जाएगा तब तक किसान आंदोलन वापस नहीं लेंगे।

मुझे हैरत इस बात पर नहीं हुई कि राहुल गांधी ने अंबानी-अडानी को किसानों का दुश्मन और मोदी का दोस्त बताया। आश्चर्य इस बात पर हुआ कि कुछ किसान संगठनों के नेता यही भाषा बोलते हुए सुनाई दिए। उन्होंने अंबानी-अडानी के प्रोडक्टस् का बहिष्कार करने की बात कही। राहुल गांधी का तो रिकॉर्ड है कि वे पिछले 6 साल से अंबानी-अडानी को ब्लेम कर रहे हैं। जब मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण विधेयक लाई थी तो राहुल ने कहा था कि ये अंबानी-अडानी की सरकार है और किसानों की जमीन लेकर अंबानी-अडानी को दे दी जाएगी। उत्तर प्रदेश में जब विधानसभा के चुनाव हुए उससे पहले राहुल ने कहा कि नोटबंदी अंबानी-अडानी को फायदा देने के लिए करवाई गई है। लेकिन चुनाव में कांग्रेस की बुरी तरह हार हुई। जनता ने राहुल पर यकीन नहीं किया। राहुल गांधी ने उत्तराखंड की एक रैली में कहा था कि मोदी जी ने अंबानी-अडानी की जेब में लाखों -करोड़ों रुपए डाले। उस चुनाव में भी कांग्रेस हार गई। हरियाणा में चुनाव हुए तो राहुल ने कहा कि मोदी अंबानी-अडानी के लाउडस्पीकर बन गए हैं वहां भी कांग्रेस की हार हुई। राहुल लोकसभा चुनाव में बार-बार कहते थे कि मोदी जी ने अंबानी की जेब में 30 हजार करोड़ रुपए डाल दिए लेकिन चुनाव में वो बुरी तरह हारे। ऐसे कितने सारे उदाहरण दिए जा सकते हैं लेकिन राहुल गांधी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी है। उनकी पार्टी के नेताओं ने भी कई बार उनको समझाया कि ऐसी बेसिर-पैर की बातों से पार्टी का नुकसान होता है। इसलिए किसान नेताओं को भी ये बात समझ लेनी चाहिए।

कई लोग ऐसे हैं जो किसान संगठनों के नेताओं को समझा रहे हैं कि वो अड़े रहे तो सरकार को झुका सकते हैं। वो इन किसान नेताओं को बताते हैं कि पहले सरकार ने दिल्ली आने का रास्ता रोका लेकिन किसान अड़े रहे तो रास्ता खोल दिया। इसके बाद बुराड़ी में आने की शर्त रखी लेकिन किसान नहीं माने और अड़े रहे तो सरकार झुक गई। किसानों ने कहा कि बात करेंगे लेकिन शर्त नहीं होनी चाहिए। ये बात भी सरकार मान गई लेकिन मंगलवार को जब अमित शाह ने बात शुरू की तो किसान नेता अड़े रहे। हां या ना में जवाब मांगते रहे। इसके बाद भी सरकार ने अपनी तरफ से एक प्रस्ताव भेजा, ये सब दिखाकर कुछ लोग किसान नेताओं को समझा रहे हैं कि अड़े रहो, दबाव बनाओ, तुम जीत जाओगे। लेकिन अच्छी बात ये है कि इन किसान नेताओं के बीच ऐसे लोग भी हैं जो कह रहे हैं कि सरकार की सहानुभूति को सरकार की कमजोरी नहीं समझना चाहिए। इन लोगों ने कहा कि जब तक मेधा पाटकर और योगेन्द्र यादव जैसे प्रोफेशनल आंदोलनकारी किसानों के आंदोलन में बैठे रहेंगे तब तक कोई रास्ता निकलना मुश्किल है। (रजत शर्मा)

देखें: ‘आज की बात, रजत शर्मा के साथ’ 09 दिसंबर, 2020 का पूरा एपिसोड

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