बुधवार को पत्थरबाजों के एक समूह ने कश्मीर के आतंकवाद प्रभावित शोपियां में एक स्कूल बस पर पथराव किया। बस में 30 से 40 बच्चे थे। इस घटना में दो स्कूली बच्चे घायल हो गए। एक बच्चे की हालत गंभीर होने के चलते उसे श्रीनगर अस्पताल में रेफर किया गया।
वास्तव में कश्मीर घाटी अपने बुरे दौर से गुजर रही है। मैं उन माता-पिता के दर्द की कल्पना कर सकता हूं जिन्होंने अपने बच्चों को स्कूल भेजा था। अगर इस तरह की घटनाएं होती रहीं तो घाटी में रहनेवाले हर माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने से डरेंगे। इन पत्थरबाजों का कोई मजहब नहीं होता। जब कभी सुरक्षाबल आतंकवादियों को निशाना बनाने की कोशिश करते हैं, उसी वक्त ये पत्थरबाज एनकाउंटर की जगह पर पहुंचकर सुरक्षाबलों का ध्यान भटकाने के लिए पथराव शुरू कर देते हैं। अब पत्थरबाजी की घटना यहां आम बात हो गई है।
मंगलवार को शोपियां में तीन आतंकवादी मारे गए और बदले में आतंकवादियों ने तीन नागरिकों की हत्या कर दी। आतंकियों के प्रति सहानुभूति रखनेवालों ने बच्चों को ले जा रही स्कूल बस पर पत्थर फेंके।
आज मैं उनलोगों से पूछना चाहता हूं जो पत्थरबाजों के बचाव में मानवाधिकार का मुद्दा उठाते हैं। वे कैसे इस तरह के अमानवीय कृत्यों का बचाव कर सकते हैं? मानवाधिकारों की बात करनेवाले इन स्वघोषित प्रवक्ताओं को देश को यह बताना चाहिए कि उन पत्थरबाजों के साथ क्या किया जाना चाहिए जो दूसरी क्लास में पढ़नेवाले बच्चों पर पत्थर फेंकते हैं।
बुधवार को हुई पत्थरबाजी की घटना के बाद अधिकांश कश्मीरियों ने यह कहना शुरू कर दिया है कि मानव मूल्यों के सभी सिद्धांतों को अपमानित करनेवाले इन पत्थरबाजों को जीने का कोई हक नहीं है। अपनी इस करतूत से इन पत्थरबाजों ने निर्दोष बच्चों के खून से अपने हाथ रंग लिए हैं। सुरक्षाबलों को इन पत्थरबाजों के साथ किसी तरह की रियायत नहीं बरतनी चाहिए। लेकिन मुझे उनलोगों की चिंता है जो पत्थरबाजों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई के समय हाथों में बैनर और पोस्टर लेकर उनके समर्थन में खड़े हो जाते हैं। (रजत शर्मा)
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