BLOG: दिवाली पर अब सबकुछ है, पर फिर भी ना जाने क्यों सब नकली सा जान पड़ता है
इस चकाचौंध भरी दिवाली में बाहर तो अमावस की रात नज़र नहीं आती पर दिल में अमावस सा अंधेरा छाया है, ये रौशनियां, ये बिजलियां क्यों नहीं एहसास करा पाते उजाले की
याद है हमें आज भी वो बचपन की दिवाली, इंतज़ार, चाचा-चाची का घर आना, सब भाई-बहनों का मिल यूं हॅसते हुए खेलना, लज़ीज़ पकवानों की ख़ुशबू, दोपहर में कुम्हार चचा का टोकरी भर दिए का लिए यूं घर आना और उसके बदले पैसे अनाज मिठाईयां लेकर आशीष देते हुए लौट जाना। शाम को हम बच्चों को मुर्गा छाप, बिजली बम, रॉकेट और घर के सबसे छोटों के छुरछुरियां लाने के लिए सिर्फ 10-10 रुपये का मिलना। हम खुश रहते उतने में ही, याद हैं हमें वो दिवाली की अमावस की काली रात में लाइट का ना होना, फिर कुम्हार चचा के दीयों का हम सब बच्चे बड़ों का मिलकर पूरे घर छतों को सजाना, सिर्फ यही दिन होता था साल में जब हम बड़े-छोटे मिलकर कोई काम करते थे, और हां जब हाथों से तेल से भरे दिए टूट जाते थे, तब भी किसी का नहीं डांटना, फिर उन्ही दियों से पटाखे, छुरछुरिया का जलाना, लक्ष्मी-गणेश की पूजा फिर हम भाई-बहनों का मिलकर विद्या को जगाने के लिए लालटेन के सामने झूठमूठ का पढ़ना, वो याद हैं हमें...
आज पैसे भी बहुत हैं, लाइटे भी हैं झालर हैं, होटल से आने वाले पकवान भी हैं, सबकुछ हैं, पर ऐसा लगता कुछ भी नहीं हैं, कुछ अपना सा नहीं लगता, ना जाने क्यों सब नकली सा जान पड़ता हैं, इस चकाचौंध भरी दिवाली में बाहर तो अमावस की रात नज़र नहीं आती पर दिल में अमावस सा अंधेरा छाया है, ये रौशनियां, ये बिजलियां क्यों नहीं एहसास करा पाते उजाले की, क्यों याद आती हैं वो गरीबी में बीती खुशिया, क्यों याद आता कुम्हार चचा की दियाली का मिल पूरे परिवार का साथ जलाना, इस दिवाली मैं छोड़ दूंगा पैसों से खरीदीं नकली चीज़ों को, लाऊंगा चचा के दीयों को, जीने की कोशिश करूंगा उस दौर को जब हम सिर्फ दिवाली अकेले नहीं मिलकर मनाते थे उनमे सब होते, घर, बच्चे, बड़े, बूढ़े और पड़ोस, और हां चचा के हाथों से बने मिट्ठी के दिए।
उन दीयों से याद आया की वो चचा हमें बचपन में बहुत ही अमीर लगते थे। हम सोचते थे की बहुत पैसा हैं उनके पास इससे ढेर सारे पटाखे आ सकते हैं, पर आज जब उसी दौर के बारे में सोचता हूं तो एहसास होता हैं कि चचा की दिवाली तब मनती थी जब उनके दिये बिकते थे, और हमारे घर वाले सिर्फ इसलिए ज़रूरत से ज़्यादा दिये खरीदते थे कि चचा भी अपने परिवार के पास जाकर त्यौहार मना सके। वो दिवाली खुशियों की दिवाली सिर्फ इसलिए हुआ करती थी कि हम दूसरे कि खुशियों कि परवाह करते हैं। उनके दुखों को समझने के लिए वक़्त निकालते थे। अपने घर में दीपक जले इससे ज़्यादा परवाह इस बात कि होती थी कि सामने वाले के घर दीपक क्यों नहीं जल पा रहा हैं। पूरा मोहल्ला शरीक होता था एक दूसरे कि ख़ुशी और ग़म में।
अगर आज कि बात करें तो हमारे पास खुद के लिए भी वक़्त नहीं होता, तो दूसरे के बारे में कैसे सोचें। लेकिन मुझे इस बात का एहसास हो गया था कि अपने दिल के अमावस के अंधकार को दूर करने के लिए मुझे भी इस दिवाली किसी कुम्हार चचा के घर में उजाला करना ही होगा। इस बार मैं भी निकल पड़ा अपने चचा कि खोज में क्योंकि मैंने सोच लिया, कि इस दिवाली में दिये मिट्टी वाले ही जलेंगे, जिसमे सोंधेपन की खुशबू के साथ मेहनत संघर्ष और पुरुषार्थ की भी महक आती हैं।