कारगिल के इस ‘परमवीर’ ने कहा था, ...तो मैं मौत को भी मार डालूंगा
3 जुलाई 1999, यानी आज से 18 साल पहले भारतीय सेना के एक युवा अधिकारी ने बहादुरी की वह इबारत लिखी थी, जिसे याद करके आज भी हर भारतीय का सीना फख्र से चौड़ा हो जाता है।
नई दिल्ली: 3 जुलाई 1999, यानी आज से 18 साल पहले भारतीय सेना के एक युवा अधिकारी ने बहादुरी की वह इबारत लिखी थी, जिसे याद करके आज भी हर भारतीय का सीना फख्र से चौड़ा हो जाता है। इस शख्स का नाम था मनोज कुमार पांडेय। कारगिल युद्ध में असीम वीरता का प्रदर्शन करन के कारण कैप्टन मनोज को भारत का सर्वोच्च वीरता पदक परमवीर चक्र (मरणोपरांत) प्रदान किया गया। मनोज कुमार पांडेय ने एक बार कहा था, ‘यदि मेरे फर्ज की राह में मौत भी रोड़ा बनी तो मैं कसम खाता हूं कि मैं मौत को भी मार दूंगा।’
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मनोज पांडेय का जन्म 25 जून 1975 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के रुधा गांव में हुआ था। मनोज का गाव नेपाल की सीमा के पास था। मनोज के पिता का नाम गोपीचन्द्र पांडेय तथा माता का नाम मोहिनी था। मनोज की शिक्षा सैनिक स्कूल लखनऊ में हुई जहां से उन्होंने अनुशासन और देशप्रेम का पाठ सीखा। इंटर की पढ़ाई पूरी करन के बाद मनोज ने प्रतियोगी परीक्षा पास करके पुणे के पास खड़कवासला स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में दाखिला लिया। ट्रेनिंग करने के बाद वह 11 गोरखा रायफल्स रेजिमेंट की पहली वाहनी के अधिकारी बने।
SSB का वह इंटरव्यू
एनडीए में दाखिले के लिए मनोज पांडेय को SSB के इंटरव्यू की बाधा पार करनी थी। वह इंटरव्यू का आखिरी दिन था। इंटरव्यू पैनल सामने बैठा था। मनोज से सवाल पूछा गया, ‘आर्मी क्यों जॉइन करना चाहते हो?’ मनोज ने जो जवाब दिया उसे सुनकर वहां मौजूद हर शख्स चौंक गया। उनके सामने बैठे इस दुबले-पतले लड़के ने कहा था, ‘मुझे परमवीर चक्र चारिए।’ इसके बाद मनोज को एनडीए में दाखिला मिल गया। मनोज ने एक बार अपनी डायरी में अंग्रेजी में लिखा था, ‘If death strikes before I prove my blood, I promise (swear), I will kill death.’ हिंदी में इसका मतलब है, ‘यदि मेरे फर्ज की राह में मौत भी रोड़ा बनी तो मैं कसम खाता हूं कि मैं मौत को भी मार दूंगा।’
गोरखा राइफल्स जॉइन करना चाहते थे मनोज
एनडीए से पासआउट होने के बाद मनोज गोरखा राइफल्स में जॉइनिंग चाहते थे, और उन्हें वहां जॉइनिंग मिल बी कई। उनकी तैनाती कश्मीर घाटी में हुई। एक बार मनोज को एक टुकड़ी लेकर गश्त के लिए भेजा गया। उनके लौटने में बहुत देर हो गई। इससे सबको बहुत चिंता हुई। जब वह अपने कार्यक्रम से दो दिन देर कर के वापस आए तो उनके कमांडिंग ऑफिसर ने उनसे इस देर का कारण पूछा, तो उन्होंने जवाब दिया, 'हमें अपनी गश्त में उग्रवादी मिले ही नहीं तो हम आगे चलते ही चले गए, जब तक हमने उनका सामना नहीं कर लिया।'
...और फिर आ गई करगिल की वह जंग
मई 1999, कारगिल की जंग की तैयारी शुरू हो गई थी। इसी जंग के बाद कैप्टन मनोज पांडेय को ‘परमवीर’ मनोज पांडेय के रूप में जाना जाता था। कैप्टन मनोज के साथ थे गोरखा राईफल्स के बहादुर सिपाही। पूरे करगिल युद्ध के दौरान कैप्टन मनोज पांडेय को कई मिशनों में लगाया गया और वह हर मिशन को कामयाबी से पूरा करते चले गए। इसके साथ ही धीरे-धीरे मनोज पांडेय के कदम वीर से ‘परमवीर’ बनने की ओर बढ़ रहे थे।
आ गया वह दिन जिसका मनोज को इंतजार था
3 जुलाई 1999 को मनोज पांडेय को खालुबर हिल से दुश्मनों को खदेड़ने का टास्क मिला। इस ऑपरेशन के साथ सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि इसे सिर्फ रात को अंजाम दिया जा सकता था। मनोज ने यह चुनौती स्वीकार की और अपनी पूरी पलटन के साथ आगे बढ़े। कैप्टन मनोज एक-एक कर दुश्मनों के सारे बंकर खाली करते जा रहे थे। पहले बंकर पर हुई आमने-सामने की लड़ाई में मनोज ने दो पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया। दूसरे बंकर पर भी मनोज ने दो पाकिस्तानियों को खत्म कर दिया। लेकिन तीसरे बंकर की ओर बढ़ते हुए, मनोज को कंधे और पैर में 2 गोलियां लग गईं।
बुरी तरह घायल होकर भी आगे बढ़ा ‘परमवीर’
मनोज ने बुरी तरह घायल होने के बावजूद हार नहीं मानी और अपनी पलटन को लिए आगे बढ़ते रहे। इस वीर ने चौथे और अंतिम बंकर पर भी फतह हासिल की और तिरंगा लहरा दिया। लेकिन यहीं पर मनोज की सांसों की डोर टूट गई। गोलियां लगने से जख्मी हुए कैप्टन मनोज पांडेय शहीद हो गए। लेकिन जाते-जाते मनोज ने नेपाली भाषा में आखिरी शब्द कहे थे, 'ना छोड़नु', जिसका मतलब होता है किसी को भी छोड़ना नहीं! जब कैप्टन मनोज पांडेय का पार्थिव शरीर लखनऊ पहुंचा था तब पूरा लखनऊ सड़कों पर उमड़ पड़ा था। भारत सरकार ने मैदान-ए-जंग में मनोज की बहादुरी के लिए परमवीर चक्र से सम्मानित किया।