कोरोना के कोहराम में शादियां थमी, करोड़ों का बिजनेस 'जीरो'
कोरोना की कमर तोड़ने को लागू 'महाबंद' से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में करोड़ों रुपये का 'घोड़ी-बघ्घी' कारोबार चौपट हो गया है। धंधे से जुड़े कारोबारियों के सामने दो जून की रोटी के लाले तो पड़े ही हैं। इनसे जुड़े बेजुवान घोड़ा-घोड़ी भी भुखमरी के कगार पर खड़े हैं।
नई दिल्ली: क्या इंसान और क्या जानवर। कोरोना के कहर ने किसी को नहीं बख्शा है। हर किसी का हाल बेहाल है। कोरोना की कमर तोड़ने को लागू 'महाबंद' से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में करोड़ों रुपये का 'घोड़ी-बघ्घी' कारोबार चौपट हो गया है। धंधे से जुड़े कारोबारियों के सामने दो जून की रोटी के लाले तो पड़े ही हैं। इनसे जुड़े बेजुवान घोड़ा-घोड़ी भी भुखमरी के कगार पर खड़े हैं। वजह वही कि, जिन शादी-बारात के चंद दिनों में इन सबकी कमाई होती थी, वे शादी-ब्याह की रौनकें तो इस बार कोरोना के कोहराम में भेंट चढ़ गयीं।
महाबंद तो कोरोना की कमर तोड़ने के वास्ते और समाज की हिफाजत के लिए ही लागू किया गया है फिर तबाही कैसी? जिंदगी महफूज होगी तो सब कुछ हासिल हो जायेगा आने वाले वक्त में! आईएएनएस के इस सवाल के जबाब में दिल्ली रेहड़ा तांगा एसोसिएशन के खजांची पवन सिंधी हीरानंद घोड़ीवाला बोले, "जो मौजूदा हालात अचानक बदले हैं या सामने खड़े हैं उनमें, जब साहब जिंदगी रहेगी, तभी तो बाकी बची जिंदगी की गुजर-बसर की सोचेंगे। फिलहाल तो अपनी, अपने परिवार की जिंदगी के साथ साथ दरवाजे पर बंधे खड़े बेजुबान 'घोड़ा-घोड़ी' की जिंदगी बचाने के लिए भी लाले पड़े हैं।"
दिल्ली के मशहूर घोड़ा-बघ्घी के पुश्तैनी कारोबारी पवन सिंधी ने आगे कहा, "मेरे पिता हीरानंद सिंधी, अब मैं और तीसरी पीढ़ी में मेरा बेटा पंकज सब इसी कारोबार से जुड़े हैं। तीन पीढ़ियों से ब्याह-बारातों में घोड़ी-बघ्घी के धंधे के अनुभव के मुताबिक, यह प्योर सीजनल बिजनेस है। साल में एक-दो सप्ताह नवंबर-दिसंबर। उसके बाद असली काम अप्रैल-मई में मिल जाता है। पूरे साल में सबसे ज्यादा काम अक्षय तृतीया, तुलसी विवाह (नवंबर), देव उठान, वसंत पंचमी (फरवरी) में शादी-ब्याह का थोड़ा बहुत काम होता है। इन दिनों में से कुछ तो ऐसी तिथि-तारीख हैं जैसे अक्षय तृतीया। इस दिन पंडित से पूछे बिना भी लोग शादी करना शुभ मानते हैं इसीलिए अक्षय तृतीया वाली तिथि ब्याह-बारात के कारोबारियों की जिंदगी में साल के सबसे बड़े त्योहार से कम नहीं।"
बकौल घोड़ा-बघ्घी व्यापारी पवन सिंधी, "इस तिथि में घोड़ी-बघ्घी में जुड़े-जुते बेजुवान घोड़ा-घोड़ी, उनकी देखरेख करने वाले नौकर-चाकर और मालिक खुद को व्यापार की नजर से सबसे ज्यादा खुशकिस्मत समझते हैं। इस बार मगर कोरोना ने हममें से किसी को कहीं का नहीं छोड़ा। बर्बाद हुए बैठे हैं हम सब घर के अंदर। घोड़ा-बघ्घी मालिक हों या लेबर या और दरवाजे पर इंसान की मोहताजी में बंधे खड़े घोड़ा-घोड़ी।"
दिल्ली के मशहूर घोड़ा-बघ्घी कारोबारी कमल प्रधान ने आईएएनएस से कहा, "मैं सरकार को दोष नहीं दे सकता। कोरोना ने मगर कहीं का नहीं छोड़ा है, यह वो सच है जो, हर किसी को निगलना पड़ेगा। कोरोना की कमर तोड़ने के लिए जिंदगी अचानक थमी नहीं, सदियों पीछे चली गयी है। जमाने की मैं बात नहीं करता। हां, शादी ब्याह बारातों में लोगों की शान-ओ-शौकत में चार चांद लगाने और अच्छा बिजनेस करने कराने वाले हम सब इस सीजन में बर्बाद हो चुके हैं। सच तो यह है कि, करोड़ों का बिजनेस 'कौड़ियों' का नहीं रहा।"
आईएएनएस से बातचीत में दिल्ली रेहड़ा तांगा बघ्घी कारोबार से पिछले कई दशक से जुड़े कमल प्रधान ने आगे कहा, "घर के बाहर खूंटों से बंधे घोड़ा-घोड़ी का पेट भरने की सोचें या फिर घर में महीने भर से बंद पड़े बीबी-बच्चों का पेट पालने की। पिछले सीजन में जो कमाया था, वो सब घोड़ा-घोड़ी की सेहत और बघ्घियों की रंगाई-पुताई पर लगाये बैठे हैं। इस उम्मीद में कि, सीजन (13 अप्रैल से 26 अप्रैल 2020 के बीच)में शादी-ब्याह की बुकिंग से कमा लेंगे। कमाने की बात दूर रही इस महाबंद में जो बुकिंग थीं वो सब भी कैंसिल हो चुकी हैं।"
आईएएनएस द्वारा जुटाई गयी जानकारी और दिल्ली घोड़ा बघ्घी एसोसिएशन पदाधिकारी अशोक आहूजा के मुताबिक, "दिल्ली में एक अनुमान के मुताबिक, 5-6 लाख लोग घोड़ा-बघ्घी बिजनेस से जुड़े हैं. इनमें मालिक, खल्लासी, लेबर, शू मेकर आदि सब जुड़े हैं। सालाना औसतन 50 करोड़ से ऊपर का कारोबार है सिर्फ राजधानी में घोड़ा-बघ्घी का, जबकि एक अंदाज से 5 हजार से ज्यादा घोड़ा-घोड़ी इस कारोबार में 'धुरी' की मानिंद जुड़े हैं। कोरोना के कहर ने मगर इन सबको नेस्तनाबूद कर दिया है। रास्ता कोई नजर नहीं आता। कभी कभी महसूस करता हूं कि, अगर कोरोना से बच भी गये तो बाकी बची जिंदगी आखिर बसर कैसे करेंगे हम लोग?"
अशोका आहूजा आगे बताते हैं, "दिल्ली में ब्याह बारात में घोड़ा बघ्घी पर काम करने देश भर से श्रमिक आते हैं। अब जब किसी का देश के दूर-दराज इलाके से फोन आता है कि, कब तक दिल्ली आयें? तो हमारे पास मन मसोस कर रह जाने के सिवाये कोई जबाब नहीं होता है। ऊपर से एक एक कारोबारी के घर के बाहर बंधे 10-10 या फिर 15-15 बेजुबान घोड़ा-घोड़ी। जो बोल नहीं सकते, उन्हें भी जीने के लिए इंसान की तरह ही भोजन पानी की जरुरत है। जो रकम बीते सीजन की कमाई की थी वो सब, घोड़ा-घोड़ी-बघ्घी के सजाने संवारने पर खर्च किये अब खाली हाथ बैठे हैं।"
आईएएनएस के एक सवाल के जबाब में अशोक आहूजा बोले, "दिल्ली में सालाना (एक सीजन) घोड़ा-बघ्घी और लाइट का करीब कारोबार ही करोड़ो में हो जाता है। इसमें किसी सीजन में 2-4 करोड़ कम ज्यादा भी होता रहता है। तब कोई फर्क नहीं पड़ता था। इस बार तो हमारा कारोबार कौड़ियों के भी भाव कहीं नहीं है। मेरे पिता सोहन लाल ने सन 1955 में एक तांगा घोड़े से कारोबार शुरू किया था। अब मैं और मेरे आगे की यानि तीसरी पीढ़ी इसी कारोबार में है। होश संभालने से लेकर आज तक मैंने इतने बुरे दिनों की कल्पना हीं की थी।"
कमोबेश अशोक आहूजा, पवन सिंधी और कमल प्रधान की सी ही हालत है अमित की। अमित खुद ही अपना कारोबार 5-6 घोड़ा-घोड़ियों के सहारे कर रहे हैं। अमित के पिता ओमप्रकाश ने इस कारोबार को पुश्तैनी रुप में पिता से लिया था। यानि खुद अमित इस कारोबार में अपने कुनबे में तीसरी पीढ़ी हैं। बकौल अमित, "पम्मी घोड़ी वाले के नाम से हमारा परिवार मशहूर था। आज हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि, अब यह नाम भी इन दुर्दिनों में नहीं बोलते कहते सुनते अच्छा नहीं लग रहा है। घर के बाहर बंधे खड़े घोड़े-घोड़ी, सजी-धजी खड़ी बघ्घियां देखकर रोना आता है. पिछले सीजन की सब कमाई इन पर लगा दी थी, इस उम्मीद में कि सीजन आते ही सब खर्चा और मुनाफा निकल आयेगा। अब तो समझ नहीं आता कि, बीबी-बच्चों के पेट भरना जब भारी पड़ रहा है, तो ऐसे में इन घोड़ा-घोड़ी की रोजाना की 2000-3000 की डाइट कहां से लाऊं?"