मुंबई: परिवार का खेती का काम छोड़कर 25 साल के अक्षय भगत ने तीन साल पहले गणेश प्रतिमाओं को रंगने का कारोबार शुरू किया। उनका सपना था कि धीरे-धीरे मूर्ति बनाने का अपना कारखाना खोलेंगे। यह कारोबार भविष्य के उनके बड़े सपनों की दिशा में एक कदम साबित होता लेकिन भविष्य सुनहरा नहीं लग रहा क्योंकि कलाकार प्रतिमाओं को बनाने के लिए प्लास्टर ऑफ पेरिस (पीओपी) पर निर्भर करते हैं जो मूर्तियां बनाने के लिए पर्यावरण के अनुकूल नहीं है।
गणेश प्रतिमाएं बनाने वालों को बड़ी राहत देते हुए सरकार ने पीओपी की गणेश प्रतिमाओं पर लगी रोक को एक साल के लिए स्थगित कर दिया था। यह फैसला कोविड-19 संकट के बीच लिया गया जिससे काफी कलाकार प्रभावित हैं। इस साल गणेश चतुर्थी अगस्त में पड़ रही है और इस फैसले से मूर्ति बनाने वालों को कुछ राहत मिलने की उम्मीद है जो पहले से ही बंद की वजह से मुश्किलों का सामना कर रहे हैं। भगत ने बताया कि यह राहत काफी देर से आई।
महाराष्ट्र में लोग हर मानसून में भगवान गणेश की प्रतिमाएं स्थापित कर 10 दिनों तक चलने वाला गणपति उत्सव मनाते हैं। इस दौरान सामुदायिक पंडालों में काफी बड़ी प्रतिमाएं स्थापित की जाती है, जबकि घरों में छोटी प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं। कृणाल पाटिल (40) का परिवार चार पीढ़ियों से प्रतिमाएं बना रहा है और वह श्री गणेश उत्कर्ष मंडल के प्रमुख हैं। यह मंडल इलाके के 17 गावों के कलाकारों का प्रतिनिधित्व करता है।
आमतौर पर करीब 500 कार्यशालाओं या कारखानों से जनवरी से ही प्रतिमाओं की आपूर्ति शुरू हो जाती है और इसकी शुरुआत उन प्रतिमाओं से होती है जिनकी ऊंचाई डेढ़ फीट से कम होती है। कई प्रतिमाओं की जल्दी आपूर्ति विदेश भेजे जाने के लिये होती है। बड़ी प्रतिमाओं का निर्माण बाद में होता है जब गर्मी का मौसम आता है, जो मूर्तियों के निर्माण के लिए उपयुक्त रहता है। पाटिल ने कहा, “बंद के कारण हमें कच्चा माल नहीं मिल रहा, खास तौर पर राजस्थान से पीओपी। हमें पीओपी के इस्तेमाल की इजाजत देने से अब ज्यादा मदद नहीं होगी क्योंकि नुकसान पहले ही हो चुका है।”
पाटिल ने कहा कि लॉकडाउन की वजह से करोड़ों का नुकसान होगा। इस साल प्रतिमाओं का उत्पादन गिरकर छह लाख मूर्तियों के करीब रहेगा जो कुल उत्पादन का एक तिहाई है। मुंबई और पुणे में प्रतिमाओं का करीब 40 प्रतिशत कारोबार होता है और यह दोनों ही शहर बड़ी संख्या में कोविड-19 के मामलों से जूझ रहे हैं। अभी यह भी स्पष्ट नहीं है कि तैयार प्रतिमाओं को इन शहरों में ले जाया जा सकता है या नहीं। करीब 2000 लोगों वाले इस कस्बे में हर जगह आपको प्रतिमाएं नजर आएंगी, कुछ खेतों में सूखने के लिए रखी गई हैं तो कुछ गोदाम में खरीदारों का इंतजार कर रही हैं। मई का अंत चल रहा है लेकिन यहां पहले की तरह कोई रौनक नहीं दिख रही जब कार्यशालाओं में रात की पाली में भी काम होता था। पाटिल ने कहा कि इससे करीब 10 हजार लोगों को रोजगार मिलता है।
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