Kargil War@21: कारगिल की संपूर्ण विजयगाथा, पढ़िए हर एक दिन की फतह और हर वीर के पराक्रम की पूरी कहानी
आज हम इसी कारगिल युद्ध की पूरी कहानी बता रहे हैं, हर दिन, हर रात हमारे वीर सैनिकों ने कैसे एक एक पहाड़ी से नापाक पाकिस्तानियों को खदेड़ कर तिरंगा फहराया था।
कारगिल में भारत की जीत को आज 21 साल पूरे हो गए। 1999 में भारत की पराक्रमी सेना ने पाकिस्तान की घुसपैठिया सेना को मुहतोड़ जवाब देते हुए भागने को मजबूर कर दिया था। भारतीय सेना के पराक्रम और बोफोर्स की गर्जना सुनकर पाकिस्तान आज 21 साल बाद भी थर्रा जाता है। इस युद्ध की वजह थी पाकिस्तानी सेना की नापाक साजिश। सर्दियों में खाली पडे बंकरों में पाकिस्तान ने कब्जा जमा लिया था। पाकिस्तानी सैनिक घुसपैठियों की शक्ल में एलओसी पर कर भारतीय चोटियों में भारी और बड़े हथियारों के साथ बैठ गए थे। पाकिस्तान का मकसद था 1971 के युद्ध में भारत के जीते गए हिस्से पर कब्जा करना। शिमला समझौते को तोड़ना। लेकिन भारतीय जांबाजों ने बेहद मुश्किल लड़ाई लडी। आज हम इसी कारगिल युद्ध की पूरी कहानी बता रहे हैं, हर दिन, हर रात हमारे वीर सैनिकों ने कैसे एक एक पहाड़ी से नापाक पाकिस्तानियों को खदेड़ कर तिरंगा फहराया था।
तारीख : 2 मई 1999
स्थान : गरकौन गांव,करगिल
भारत-पाक नियंत्रण रेखा के पास बसा एक छोटा सा पहाड़ी गांव गरकौन है। इस गांव की आबादी कोई पांच सात सौ की होगी। सीमा रेखा के पास होने की वजह से इस गांव में फौजियों की आवाजाही रहती है। लिहाजा गांव के लोग फौज की चिंताओं से वाकिफ रहते हैं। वो जानते हैं कि देश के लिए इस सीमा में क्या खतरनाक है और क्या नहीं। इसी गांव में एक बाशिंदा है ताषी नामग्याल। ताषी पेशे से चरवाहा है। अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए ताषी ने याक पाल रखें हैं। याक अक्सर चारे की खोज में पहाड़ की ऊचाइयों में चले जाते हैं। दो मई 1999 को ताषी का याक खो गया। ताषी उसे खोजते हुए गांव से दूर निकल आया। दूर ऊंची पडाड़ियों में वो दूरबीन की मदद से अपने याक को खोजने लगा। यहां उसे पाकिस्तानी घुसपैठ के निशान मिले। भौचक्का ताषी पहाड़ से नीचे उतरता है। वो पहाड़ से उतर कर सीधे पास मौजूद एक सैनिक से मिलता है। वो हवलदार को पहाड़ी के ऊपर चल रही हरकतों के बारे मे बताता है। हवालदार का चेहरा चिंता और तनाव से भर जाता है। वो उल्टे पैर आदमी के साथ चल पड़ते हैं। दोनो फिर उसी जगह पर पहुंचते हैं और पहाड़ी के पार देखते हैं। फिर ताषी की पीठ थपथपा कर फौरन अपने कैंप की ओर भागते हैं।
तारीख : 4 मई
स्थान : कुकरथांग
4 और 5 मई के दरम्यानी समय में सेना के गश्ती दल ने बटालिक क्षेत्र के कुकरथांग के पास भी कुछ ऐसा देखा जिससे उसके रोंगटे खड़े हो गए। ऊंची ऊंची चोटियों से घिरा ये इलाका सियाचीन ग्लेशियर के पीछे है तो आतंक से जूझती वादी के आगे। (मशकोह से बटालिक के बीच फैले 120 किलोमीटर के दायरे में द्रास,काश्कर,बटालिक,मश्कोह घाटी जैसे अहम इलाके हैं। इसी इलाके में करगिल से उत्तर की ओर अस्सी किलोमीटर के दायरे में तोलोलिंग प्वाइंट 4590 प्वाइंट 5100 प्वाइंट 4268 प्वाइंट 5140 थ्री पिंपल्स जुबार हिल और टाइगर हिल जैसी चोटियां हैं) जो पीओके की तरफ ढलवां और भारत की तरफ बिल्कुल सीधी खड़ीं हैं संगीन की तरह। ये हिस्सा बेहद संवेदनशील और स्ट्रेटजिक अहमियत वाला है। लिहाजा यहां पर गिरी सुई की आवाज भी दिल्ली में धमाका साबित होती है।
तारीख : 6 मई 1999
स्थान : नॉर्थ ब्लॉक,रक्षामंत्री ऑफिस,नई दिल्ली
करगिल की चोटियों का गुपचुप रहस्य अब दिल्ली के इन गलियारों में दस्तक दे रहा था। उस समय के रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडीस को करगिल में चल रहीं उठापटक की जानकारी छह मई 1999 को दे दी गयी। दिल्ली ने करगिल की तनाव बढ़ाने वाली खबर पर मजबूती की पुख्ता मुहर लगाने की बात कही।
तारीख : 8 मई 1999
स्थान: करगिल का द्रास इलाका
इन गगन चूमती पहाड़ियों में भारत के खिलाफ एक बेहद संगीन साजिश ने बंकर बना लिए थे।और इन्ही बंकरों की हरकतों ने करगिल को अजीब सी सनसनी से भर दिया था जिसकी हलचल ने दिल्ली की रायसीना हिल्स में भूचाल ला दिया था। करगिल पर हुई पाकिस्तान की ये घुसपैठ कितनी बड़ी थी।इसका जायजा लेने के लिए सेना की कई टुकड़ियां उस इलाके में भेजी गयी।पूरी सावधानी के साथ सेना के जवान इलाके में चल रही दुश्मन की हरकतों को भांपने के लिए घुसे।
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तारीख : 9 मई 1999
स्थान : करगिल,सेना आयुध भंडार
सेना की बढ़ती गतिविधियों को देखकर घुसपैठिए सतर्क हो गए।घुसपैठियों ने ये बात अपने आकाओं को इस्लामाबाद में बतायी।अपनी ओर बढ़ते खतरे से डर कर।घुसपैठ को मजबूती देने के लिए।पाकिस्तान की ओर से तोप के गोले करगिल जिला मुख्यालय में बने सेना के आयुध भंडार में गिरे।पूरा एम्यूनिशन डीपो जलकर खाक हो गया।करीब 100 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ।इस डीपो पर हमला बेहद बेधड़क था और भारत को भौचक्का करने वाला।दुश्मन को लगा कि अगर इतना गोला बारूद लेकर सेना दौड़ पड़ी तो महीनों की मेहनत मिनटों में ध्वस्त हो जाएगी।
तारीख : 12 मई
स्थान: कारगिल
अब तक दिल्ली को इस्लामाबाद के इरादों का ऐतबार हो चुका था । 12 से 14 मई 1999, के बीच रक्षामंत्री ने उत्तरी कमांड के जनरल ऑफिसर कमांडिंग इन चीफ लेफ्टीनेंट जनरल एचएम खन्ना और 15वीं कोर के कमांडर लेफ्टीनेंट जनरल कृष्णपाल के साथ इलाके का दौरा किया लेफ्टिनेंट जनरल कृष्णपाल ने उन्हें घुसपैठियों की पूरी घटना से वाकिफ करवाया और प्रधानमंत्री को भी पूरी जानकारी दे दी।
तारीख : 14 मई 1999
स्थान : काकसर क्षेत्र,करगिल
भारत घुसपैठियों की ताकत और पोजीशन का अंदाजा लगाने के लिए बराबर टोही दल भेज रहा था।ऐसी ही एक गश्त में निकले थे कैप्टन सौरभ कालिया।कैप्टन सौरभ कालिया अपने साथियों अर्जुन राम, भंवर लाल बघेरिया, बीकाराम, मूलाराम और नरेश सिंह के साथ नियंत्रण रेखा पर काफी आगे चले गए। पूरे दिन की गश्त के बाद रात को हमले की योजना बना कर ये आराम कर रहे थे।तभी जाट रेजीमेंट के इन अफसरों और जवानों का अपहरण पाकिस्तानी सैनिकों ने कर लिया। उन्हें बर्बर यातनाएं दी गई, उनकी आंखे निकाल ली गई और फिर गले काट दिए गए। सौरभ लेफ्टिनेंट से कैप्टन बनने के बाद अपना पहला वेतन भी नहीं ले पाए थे। आखिरी चिट्ठी में उन्होंने लिखा था कि मैं दुश्मन को हरा कर ही अपनी सेलरी लूंगा। और तभी घर आऊंगा,तब हम पार्टी करेंगे। 9 जून को करगिल की चौकी नंबर 43 पर लेफ्टीनेंट सौरभ कालिया और उनके पांच जवानों के शव पाकिस्तान ने भारत को सौंपे। युद्ध अपराध के सबूत इन शवों को देखकर अच्छे अच्छे युद्धवीरों की आंख से आंसू टपक गए।
कारगिल में बरसे पाकिस्तानी गोले
इस बीच पाकिस्तान की तरफ से करगिल प्रशासन के सुरू में बने नए मुख्यालय पर तोप के गोले बरसे।पाकिस्तान की ओर से गोले बेहद सही जगह पर गिर रहे थे।हमला हमेशा बेहद अहम जगह पर हो रहा था और बेहद सटीक। ऐसे मानो भारत में बैठ कर कोई पाकिस्तान में जानकारी भेज रहा हो।हालात नाजुक देख भारत ने भी अहम जगहों पर बड़ी तोपें तैनात कर दीं। इसके अलावा पाक हमले की सही जानकारी के लिए टोही विमान उड़ाए गए।ज्यादा पेट्रोल पार्टी रवाना की गयीं। पता चला कि- (मशकोह से बटालिक के बीच फैले 120 किलोमीटर के दायरे में घुसपैठियों ने कई जगह पर अपने बंकर बना लिए थे।द्रास,काश्कर,बटालिक,मश्कोह-में 10 किलोमीटर भीतर तक घुस आए थे घुसपैठिए। करगिल से उत्तर की ओर 80 किलोमीटर के क्षेत्र में आतंकियों ने ऊंची पहाड़ियों पर अड्डे बना लिए थे। इनके निशाने पर था ये हाइवे।हाइवे इसलिए क्योंकि, लेह को श्रीनगर से जोड़ने वाली सामरिक महत्व की इस सड़क को बंद कर पाकिस्तान सर्दियों में लद्दाख को जाने वाली आपूर्ति रोक सकता था। द्रास और करगिल पर कब्जा करके उसे नियंत्रण रेखा खुलवाने के लिए इस्तेमाल कर सकता था। चुघ घाटी,बटालिक और तुर्तुक क्षेत्र की पहाड़ियों पर कब्जा करके भारत को सियाचिन से पीछे हटने पर मजबूर कर सकता था। करगिल के पास मश्कोह घाटी के नालों पर कब्जा करके वहां से ताजा घुसपैठ के लिए रास्ते बना सकता था।पर सबसे बड़ा मंसूबा था नियंत्रण रेखा को बदलने और शिमला समझौते को दफन करके कश्मीर को फिर से अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर लाने का।)
1971 में हारे हिस्से कब्जाना चाहता था पाकिस्तान
ऐसे में अगर पाकिस्तान अपने इरादों पर सफल होता तो। (लेह श्रीनगर राजमार्ग पर स्ट्रैटजिक कब्जा जमा लेह को श्रीनगर से काट देता। सियाचीन ग्लेशियर में भारतीय सेना फंस जाती। समूची नियंत्रण रेखा पर सवाल खड़े हो जाते।पाकिस्तान 1972 में भारत के हिस्से आए क्षेत्रों पर फिर काबिज हो जाता।कश्मीर घाटी में आतंकियों के हौसले बुलंद कर पाकिस्तान कश्मीर समस्या को फिर से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अहम बना देता।) और इस घुसपैठ से उसे वो सफलता मिलती जिसे वो 50 साल में तीन युद्ध लड़कर भी नहीं पा सका था।
भारत के लिए थे मुश्किल हालात
बेहद उंचाई पर बैठे दुश्मन की स्थिति इतनी सही थी कि उंचाई पर बैठे 10 घुसपैठिए 1000 सैनिकों की टुकड़ी पर भारी पड़ते थे ,और अगर उनके पास भारी तादाद में मशीनगन,हल्की तोपें,एंटी एयरक्राफ्ट गन और स्ट्रिंगर मिसाइल हों तो आप सोच सकते हैं कि खतरा कितना बढ़ गया था।ऐसे में जमीनी लड़ाई सैनिकों की बलि चढ़ाते जाने से ज्यादा कुछ साबित नहीं होती।लिहाजा अब घुसपैठियों को उनकी मांद में ही मार गिराने का एक ही तरीका था और वो थी एयर स्ट्राइक।पर इसमें एक खतरा था वो ये कि इससे जवाबी कार्यवाही युद्ध के दायरे में पहुंच जाती।
तारीख : 19 मई 1999
स्थान : सेना भवन,दिल्ली
थलसेना प्रमुख विदेशी दौरे पर थे लिहाजा उपथलसेना प्रमुख चन्द्रशेखर ने साथियों से बातचीत कर हवाई हमले की मदद लेने का फैसला कर लिया।1947 और 1965 की लड़ाई में भी वायुसेना ने कश्मीर इलाके में निर्णायक दखल दिया था।पर सीसीएस ने शुरूआती दौर में वायुसेना के इस्तेमाल की सिफारिश ठुकरा दी। इक्कीस मई को भारतीय विदेश मंत्रालय ने बयान जारी किया...जिसमें पाकिस्तानी की घुसपैठ का ब्योरा था...और पाकिस्तान से शिमला समझौते पर कायम रहने की बात कही गयी थी। 21 मई को ही थलसेना प्रमुख वीपी मलिक देश लौट आए 23 मई को उन्होंने खुद इलाके का दौरा किया। वहां से लौटने के बाद उन्होंने 24 मई को तत्कालीन वायुसेना प्रमुख ए वाई टिपणिस को सीधा सैन्य कार्रवाई निदेशालय के ऑपरेशन रूम में बुला लिया।
तारीख : 24 मई
स्थान : नई दिल्ली
24 मई को ही रात साढ़े दस बजे नवाज शरीफ ने प्रधानमंत्री वाजपेयी को फोन किया,लाहौर में मियां नवाज से हुलस के मिलने वाले वाजपेयी की आवाज से गर्भजोशी गायब थी।दस मिनट की बातचीत में उन्होंने नवाज शरीफ को बहुत अच्छी तरह समझा दिया कि लाहौर की बस के करगिल पहुंचने का अंजाम क्या है, उन्होंने दो टूक कह दिया कि पहाड़ियों से घुसपैठियों को पीछे हटाओ वर्ना भारत अपनी सुरक्षा के लिए कुछ भी करेगा,फोन कटा और वाजपेयी जी सो गए।
तारीख: 25 मई 1999
स्थान: 7rcr,प्रधानमंत्री आवास,नई दिल्ली
25 मई की सुबह अटल विहारी वाजपेयी एक निर्णय के साथ उठे,एनडीए गठबंधन जयललिता के नखरों से बेहद परेशान था। और देश पर करगिल का संकट।सीसीएस बैठक में वाजपेयी ने हवाई हमले के आदेश पर मुहर लगा दी।26 को वाजपेयी जी पांडीचेरी में थे और वायुसेना प्रमुख टिपणिस चुपचाप कश्मीर के हवाई ठिकानों की टोह ले रहे थे।इधर वाजपेयी जी ने पत्रकारों को सियासी सवाल के जवाब में कारगिल में घुसपैठ की खबर थमा दी तो उधर टिपणिस ने हवाई हमले का बटन दबा दिया। वाजपेयी ने कारगिल घुसपैठ की बात से एनडीए से जयललिता के अलगाव को ठंडा कर दिया, तो एयर चीफ टिपणिस के आदेश ने चोटी पर बैठे घुसपैठियों को।
स्थान: श्रीनगर, पठानकोट एयरबेस
श्रीनगर और पठानकोट से उड़ान भर कर मिग-21 औऱ 27 के साथ एमआई-17 हेलिकॉप्टर्स ने द्रास के करीब प्वाइंट 4590 चोटी पर हमला किया। दोपहर से पहले बटालिक क्षेत्र में दूसरा हमला किया गया।तो दूसरी ओर पहाड़ियों के नीचे थल सेना की एक डिवीजन के साथ तोपखाने की तैनाती ने विवाद को गंभीर कर दिया।सेना अपनी कार्रवाई और तैनाती को लेकर बहुत सतर्क भी थी।औपचारिक तौर पर ऑपरेशन विजय प्रारंभ हो गया।और इसके साथ ही वायुसेना का ऑपरेशन सफेद सागर भी। बावजूद इसके हवा और जमीन पर ज्यादा साहस का परिचय खतरनाक हो सकता था। जमीन पर तुर्तुक और मश्कोह घाटी में ज्यादा सक्रियता का मतलब था सीमा पर पाक फौजों को जमा होने की वजह देना जो कि घुसपैठियों के लिए बहुत अच्छा सपोर्ट बनता। और आसमान में अगर विमान ज्यादा साहसिक होते तो 1965 के हालात पैदा हो सकते थे जबकि पाकिस्तान ने भारतीय वायुसेना के मामूली प्रयोग के जवाब में भीषण हवाई हमला कर दिया था।
तारीख: 27 मई 1999
स्थान : द्रास सेक्टर,करगिल
27 मई भारतीय हवाई हमले की रणनीति के लिए बेहद घातक बन कर आयी।पर इस तारीख से बड़ा सबक भी मिला।फ्लाइट लेफ्टीनेंट नचिकेता ने मिग-27 से उड़ान भरी।पर उनके मिग विमान को पहाड़ियों के ऊपर से चलायी गयी स्ट्रींगर मिसाइल से मार गिराया गया। फ्लाइट लेफ्टीनेंट नचिकेता इजेक्ट होकर पैराशूट के सहारे नीचे उतरे तो वो नियंत्रण रेखा के पार चले गए। उन्हें बंदी बना लिया गया।भारतीय खेमे में खलबली मच गयी।विमान गिराया गया, फ्लाइट लेफ्टिनेंट का पता नहीं। खोजी उड़ान लेकर स्क्वैड्रन लीडर ए अहूजा निकले तो उनके मिग इक्कीस विमान को भी पहाड़ियों की चोटी से चलीं स्ट्रिंगर मिसाइल ने नष्ट कर दिया।जब स्क्वैड्रन लीडर अहूजा पैराशूट से कूदे तो उन्हें गोलियों से भून दिया गया । पर नुकसान को भुला कर 27 मई की शाम को ही लड़ाकू विमानों ने टाइगर हिल और प्वाइंट 4590 पर भीषण बमबारी की।और अबतक खामोश तोपखाने का मुंह भी पहाड़ियों की ओर खोल दिया गया।और इसकी आड़ में पहाड़ों पर चढ़ रही सेना की टुकड़ियों ने दुश्मन पर हमला बोल दिया।अब भारत ने घुसपैठियों के खिलाफ मौके पर मौजूद हर हथियार से धावा शुरू कर दिया था। नीचे से तोपें गरज रहीं थीं और ऊपर से हवाई बम।हालात पूरी तरह युद्ध जैसे हो गए थे।पर अभी भी भारत सरकार इसे युद्ध या विरोधी कार्रवाई जैसे जुमलों से बचा रही थी।अब तक कश्मीर के श्रीनगर में 15 वीं कोर के हेडक्वार्टर में युद्ध का ऑपरेशन रूम बना दिया गया था।
तारीख : 28 मई 1999
स्थान : द्रास सेक्टर,करगिल
पहाड़ियों में चढ़े बैठे घुसपैठियों को नीचे धकेलने के लिए सेना के एमआई-17 हेलिकॉप्टर भी हमले मे लगाए गए।हांलाकि गुजरा दिन हवाई हमले के लिहाज से बेहद खतरनाक साबित हो चुका था।और हमें ये भी पता चला था कि चोटी पर दुश्मन के पास एंटी एयरक्राफ्ट गन और स्ट्रिंगर मिसाइल हैं।अफगानिस्तान में हवाई हमले की रीढ़ तोड़ने के लिए तालीबानियों ने इस मिसाइल का जमकर इस्तेमाल किया था।स्ट्रिंगर मिसाइल कंधे पर लांचर रखके फायर की जाती है।जैसे ही भारतीय सेना का हेलिकॉप्टर घुसपैठियों की जद में आया उन्होंने स्ट्रिंगर मिसाइल दाग दी और हेलिकॉप्टर उसका शिकार हो गया।भारतीय खेमे के लिए ये बड़ा झटका था।वायुसेना ने अपने चार वीर गंवा दिए थे।अब वायुसेना मिराज 2000 की तैनाती की सोच रही थी ताकि ज्यादा उंचाई से अचूक हमले किए जा सकें।रक्षामंत्री और थलसेना प्रमुख ने करगिल,द्रास बटालिक का हवाई दौरा किया।
तारीख : 29 मई
स्थान: बटालिक सेक्टर
इधर जमीन पर सेना ने 29 मई को बटालिक सब सेक्टर के दो ठिकानों और द्रास सब सेक्टर की एक प्रमुख चोटी के अलावा मश्कोह घाटी से कई अलग अलग ठिकानों पर घुसपैठियों को भगा तिरंगा गाड़ दिया था।तीन सौ घुसपैठिए मारे गए और करीब 150 से ज्यादा घायल हो मोर्चा छोड़ भाग खड़े हुए। युद्ध से पूरी दुनिया सकते में थी क्योंकि लड़ाई दो परमाणु शक्ति संपन्न पुराने दुश्मनों के बीच थी।30 मई को यूएन के महासचिव कोफी अन्नान ने पीएम अटल विहारी वाजपेयी को फोन किया और मध्यस्थता की पेशकश की पर वाजपेयी ने बिना समय गंवाएं उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया। इधर पाकिस्तानी फौज की हलचल को देखकर भारतीय नौसेना को भी सतर्क कर दिया गया और उनकी कार्रवाई को नाम दिया गया ऑपरेशन सफेद सागर। अब मिराज 2000 ने दुश्मन पर हमला शुरू कर दिया।पर युद्ध रोकने की कोशिशों में एक अहम कदम उठा 31 मई को जबकि अटल बिहारी वाजपेयी ने पाक विदेशमंत्री सरताज अजीज की भारत यात्रा को हां कह दी।ये 28 मई को अटल और नवाज शरीफ के बीच हुई बातचीत का नतीजा था।जिसमें वाजपेयी ने बिल्कुल साफ कर दिया था कि बातचीत सिर्फ घुसपैठ के इर्दगिर्द ही होगी।1 जून को रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडीस का एक बयान बड़े विवाद की वजह बन गया।जॉर्ज ने कह दिया की घुसपैठियों को सुरक्षित निकासी के विकल्प पर विचार किया जा सकता है।पर रक्षामंत्री ने पाकिस्तान की परमाणु युद्ध धमकी का मुंह तोड़ जवाब देकर हालात कुछ सुधार लिए...जॉर्ज ने कहा कि अगर पाकिस्तान परमाणु युद्ध की बात करता है तो ये उसके लिए आत्महत्या करने जैसा है।
तारीख : 2 जून
स्थान: कारगिल
करगिल घुसपैठ का पता चले करीब 30 दिन का समय पूरा हो चुका था।भारतीय सेना के सामने दुश्मन से ज्यादा बड़ी चुनौती साबित हो रहे थे ये पहाड़।भारतीय मारक क्षमता पहाड़ों की जड़ में थी तो उनका निशाना बिल्कुल खड़ी चोटी पर।ऐसे में सेना के हथियार,सामार्थ्य और तादाद सभी कुछ बुरी तरह पिछड़ रहा था।नुकसान भी बहुत हो रहा था। एक हमले को अंजाम देने की तैयारी में सिपाही सैकड़ों की तादाद में लगते,पर चोटी पर दुश्मन का सामना करने के लिए मोर्चे पर केवल अस्सी से नब्बे सिपाही ही चढ़ पाते जिनमें अधिकारी भी शामिल होते।सेना में कहावत है कि पहाड़ जवानों को खा जाता है।शहादत के आंकड़े इस कहावत पर मुहर लगा रहे थे जो कि हर गुजरते दिन के साथ बढ़ रहे थे।
तारीख : 3 जून
स्थान: कारगिल
3 जून 1999 तक शहीदों की सूची में 57 नाम दर्ज थे जिसमें 4अधिकारी,3 जेसीओ भी शामिल थे। 203 सैनिक घायल हुए थे। ठीक आठ दिन बाद ये आकंड़ा करीब दो गुना हो गया।11 जून 1999 तक शहीदों में 98 नाम शामिल थे,घायलों की सूची में 317 नाम थे,बदले में अबतक 250 घुसपैठियों को मौत के घाट उतार दिया गया था।इस शहादत के एवज में सेना को मिली कामयाबी ये थी कि उसने घुसपैठियों के कुछ बंकर बर्बाद किए थे और करगिल-लेह क्षेत्र में 180 किलोमीटर लंबी नियंत्रण रेखा में घुसपैठियों को करीब 10 किलोमीटर पीछे तक खदेड़ दिया गया था।पर इस वक्त युद्ध की एक सच्चाई ये भी थी कि घुसपैठियों के चेचक की तरह बिखरे बंकरों की पूरी जानकारी भी सेना के पास नहीं थी।हर हमले के साथ नए ठिकाने सामने आ रहे थे।सेना अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद दुश्मन की रसद आपूर्ति को रोक नहीं पायी थी। क्योंकि जो पहाड़ियां हमारे सामने सीधी रेखा की तरह खड़ीं थीं वो पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की ओर से ढलान भरीं थीं जिनके जरिए आसानी से उन्हें रसद पहुंचायी जा रही थी।मश्कोह घाटी के नालों से पाकिस्तानी सेना के समर्थन से घुसपैठिए भी बराबर पहुंच रहे थे।
मुश्किल घड़ी में अदम्य साहस
हमारी मजबूरी ये थी कि नियंत्रण रेखा पार न कर पाने की वजह से हम पहाड़ी में बैठे दुश्मन को कायदे से घेर भी नहीं पा रहे थे।और न ही घुसपैठियों की नालों से आ रही गंदी बाढ़ को रोक पा रहे थे, हम सिर्फ उनसे लड़ रहे थे। इसी का नतीजा था कि श्रीनगर-लेह राजमार्ग को पाक घुसपैठियों ने अपनी बमबारी से बंधक बना लिया था।भारतीय युद्ध पूरी तरह से इस हाइवे को आजाद करने के इरादे से हो रहा था।इस हाइवे पर तोलोलिंग और टाइगर हिल से लगातार हमले हो रहे थे ।भारतीय सैनिक इन दो चोटियों को दुश्मन से खाली कराने में मई के मध्य सप्ताह से ही जुटे थे।करगिल की सुरक्षा में तैनात 121 ब्रिगेड के कमांडर को लगा की चोटी पर आठ-दस घुसपैठिए होंगे।लिहाजा उन्होने कहा कि जाओ और आतंकियों को कॉलर पकड़ कर खींच लाओ।नगा,गढ़वाल और ग्रेनेडियर्स रेजीमेंट इस काम मे गयीं।पर जैसे जैसे हमला आगे बढ़ा तो उन्हें असलियत का अहसास हुआ।शुरूआती कुछ हमलों में तो ऐसा हुआ कि दुश्मन ने बिना गोली बारूद के हमारे हमले नाकाम कर दिए।चोटी से पत्थर धकेल कर उन्होंने भारतीय सैनिकों को काफी नुकसान पहुंचाया।पत्थर की ये चोट सबसे ज्यादा नगा रेजिमेंट को लगी।नकामी की निराशा को तोड़ा ग्रेनिडियर्स के 28 वर्षीय मेजर राजेश अधिकारी ने।राजेश अधिकारी अपने 10 साथियों के साथ दुश्मन के बेहद करीब पहुंचने में कामयाब हुए।
खौफजदा दुश्मन
उन्होंने दुश्मन के दिल में भारतीय इरादों का खौफ पैदा किया।वर्ना अबतक तो दुश्मन खुद को चोटी पर बैठा खुदा मान रहा था।जिसे कोई छू भी नहीं सकता।पर मेजर राजेश अधिकारी अपनी चुनौती को विजय में बदल नहीं सके और शहीद हो गए।बताया जाता है कि उनकी दस महीने पहले शादी हुई थी और उनकी पत्नी का खत मोर्चे पर जाने से कुछ वक्त पहले ही मिला था।मेजर ने कहा इस खत को फुर्सत से पढूंगा। उसे उन्होंने नक्शा और रायफल संभालते हुए किसी तरह अपनी जेब में रख लिया था।पर मेजर राजेश लक्ष्य से २० मीटर पहले शहीद हुए और पत्नी का खत कभी नहीं पढ़ सके।उनके साथी कैप्टन सचिन निंबालकर तीन दिन तक नुकीले पहाड़ के कटीले किनारे पर एक चट्टान की आड़ में फंसे रहे और दुश्मन उन्हें चुनौती देता रहा कि दम हो तो अपने साथियों की लाश ले जाओ।निंबालकर ने पलट कर कहा भी कि तेरी लाश ले जाउंगा पर दुश्मन से सीधी बात करने वाला ये बहादुर इससे ज्यादा कुछ कर नहीं सका।तोलोलिंग की पहाड़ी को आजाद करवाने में अबतक हुई शहादत पूरे युद्ध में हुई कुर्बानियों की आधी हो चुकी थीं।पर सच ये था कि हम अपने सैनिकों के शव भी पहाड़ी से नहीं ला पर रहे थे।
18 ग्रेनेडियर्स के लेफ्टिनेंट कर्नल विश्वनाथन ने जब अपने साथियों के शव के सम्मान की लड़ाई लड़ी तो उन्हें भी वीरगति प्राप्त हुई।छह घंटे की लगातार चढ़ाई चढ़ कर वीर विश्वनाथन अपने साथियों के शवों तक पहुंच गए।दुश्मनों ने लाशों में बूबी ट्रैप लगा रखा था,जैसे ही शव को अपने कब्जे में लेने की कोशिश हुए लाशों में बंधी माइन्स फट पड़ीं।किसी का हाथ कटा किसी का पैर।फिर भी वीर विश्वनाथन और उनके साथियों ने हौसला नहीं हारा,पर दुश्मन की एलएमजी ने उनका रास्ता रोक दिया। पर इस अधिकारी की चिट्ठी ने जिस सच्चाई का खुलासा किया उसने आक्रमण की दशा दिशा बदलने पर मजबूर किया।लेफ्टिनेंट कर्नल विश्वनाथन में अपने आखिरी खत में लिखा था कि हम"एक अंजाने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं जो कि बेहद खतरनाक हो सकता है"।
लेफ्टिनेंट कर्नल की शहादत का असर ये हुआ कि तोपखाने की कवर फायरिंग को मजबूत करने का जिम्मा द्रास आर्टलरी के कमांडर ब्रिगेडियर लखिंदर सिंह को सौंपा गया।और उसके बाद करगिल में 105 एमएम गन के अलावा 130 और 155 एमएम की तोपों को लाने का काम शुरू हुआ। पैरा कमांडों की तैनाती का फैसला हुआ ताकि उनसे दुश्मन की तोपों की जानकारी इकट्ठा करवा उन्हें मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके।
हमले के लिए तोपों को यहां तक लाना भी अपने आप में एक युद्ध जैसा ही था।इन संकरे पहाड़ी रास्तों में दुश्मन की गोलीबारी से बचते हुए तोपों को मोर्चे तक पहुंचाना बेहद खतरनाक था।तोपे केवल रात के वक्त छिपा कर लायी जा सकती थीं,दिन में तो दुश्मन को खबर होने का खतरा था। गुमरी और मताइन बेस से तोपें लायी गयीं।ताकतवर स्काइना ट्रक इन्हें खींच रहे थे।संकरे पहाड़ी रास्ते में मामूली चूक का मतलब हजारों मीटर नीचे गिरना।ऐसे में घुप अंधेरा,और ट्क की हेडलाइट बंद।क्योंकि लाइट जलते ही चोटी पर बैठा दुश्मन गोला दाग देता।ट्रक के आगे दो सैनिक टार्च लेकर चलते थे।वो हर दो मिनट में एक बार टार्च को जलाते थे।और इसी अंदाजे पर ड्राइवर ट्रक आगे बढ़ा रहे थे।इसके बावजूद सूरज निकलने से पहले ट्रक द्रास तक तोपें लेकर आए।
तारीख: 4 जून 1999
स्थान : बटालिक सबसेक्टर
चार जून को बटालिक सबसेक्टर से तीन पाकिस्तानी सैनिकों के शव बरामद हुए और साथ ही ऐसे कागजात जो उन्हें पाक सैनिक साबित करने का पुख्ता सबूत थे।पाकिस्तान का चेहरा दुनिया के सामने बेनकाब हो चुका था।थल सेना ने पहली बार छाती ठोक कर कहा कि घुसपैठिए और कोई नहीं बल्कि नियमित पाकिस्तानी सेना के जवान और अधिकारी ही हैं। पाकिस्तान पर चारो ओर से दबाव बनने लगा,दुनिया भारत के साथ खड़ी थी। भारत ने बटालिक सेक्टर में घुसपैठियों से पांच ठिकाने खाली करवा लिए।भारत ने सात जून को पाक विदेशमंत्री की भारत यात्रा का प्रस्ताव ठुकरा दिया।भारत ने घुसपैठियों पर घेरा कड़ा किया।पाकिस्तान सरकार के नरम तेवल सामने आने लगे।पाकिस्तान ने फ्लाइट लेफ्टीनेंट नचिकेता की रिहाई का ऐलान कर दिया,फ्लाइट लेप्टीनेंट नचीकेता को पाकिस्तान ने उस वक्त पकड़ लिया था जब उनका विमान एक मिसाइल हमले में नष्ट हो गया था और वो पाकिस्तानी इलाके में पहुंच गए थे।9 जून को पाकिस्तान ने कैप्टन सौरभ कालिया और उनके चार साथियों के शव भी भारत को सौंपे।
अब भारतीय सेना ने एक चौकाने वाला फैसला किया ।उसने स्ट्रेजिक विश्राम लिया। सेना ने बड़े हमले रोक दिए। दुश्मन के खिलाफ इस कदम का मकसद खुद को आखिरी हमले से पहले अच्छी तरह तैयार करना था। सेना ने अटैक में अमूल चूल बदलाव किए। बढ़ती ठंड से बचाव के लिए करगिल सूट्स का इंतजाम किया गया।सैनिकों के लिए नए जूते और हथियार मंगवाए गए। हमले की जिम्मेदारी के लिए सेना की नयी टुकड़ियों को जिम्मा सौंपा गया। ज्यादा असरदार तोपखाना तैनात किया गया।पहाड़ों में रस्सियों का रास्ता बनाने के लिए पर्वतारोही डिवीजन को लगाया गया। हमले की बाकायदा मॉक ड्रिल की गयी। बड़े हमले की उल्टी गिनती अब शुरू हो गयी थी।
तारीख: 11जून 1999
स्थान : नई दिल्ली,विदेश मंत्री की प्रेसवार्ता
उधर सेना पाकिस्तान को घेरने में लगी थी तो इधर दिल्ली में राजनयिक स्तर पर उसे घेरने की तैयारी चल रही थी। पाक विदेश मंत्री के भारत आने के ऐन एक दिन पहले भारतीय विदेश मंत्री ने प्रेस कॉन्फेंस बुलायी।बड़ी तादाद में पत्रकार प्रेस वार्ता में पहुंचे।युद्ध के बीच में विदेशमंत्री की इस कॉन्फ्रेंस को लेकर भारी उत्सुकता थी।हर मन में सवाल था क्या होगा। विदेश मंत्री जसवंत सिंह आए तो उन्होंने बम फोड़ दिया।विदेश मंत्री ने एक ऑडियो टेप लोगों को सुनाया।इस टेप में करगिल की साजिश को लेकर पाक के सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ और पाक सेना के चीफ आफ स्टाफ लेफ्टीनेंट जनरल मोहम्मद अजीज की बातचीत थी। साफ हो गया कि पाक सेना की साजिश का नतीजा था करगिल।पर पाक सरकार का भी दामन पाक-साफ नहीं है। प्रेसवार्ता के अंत में विदेशमंत्री ने कहा कि देर से ही सही शायद पाकिस्तान को सदबुद्धि आए और वो अपनी दुस्साहसपूर्व कार्रवाई को वापस ले।उन्होंने साफ कर दिया कि वो पाक विदेशमंत्री से नियंत्रण रेखा में यथास्थिति बरकरार रखने की बात कहेंगें।
तारीख: 12 जून 1999
स्थान: नई दिल्ली,भारत-पाक विदेशमंत्री मुलाकात
पाक विदेशमंत्री सरताज अजीज और जसवंत सिंह की मुलाकात हुई तो जसवंत ने दो टूक मुंह पर बोल दिया कि बात क्या करोगे पहले सैनिकों के साथ बर्बरता करने वालों को सजा दो...घुसपैठियों को वापस बुलाओ तब बात होगी।लेकिन घुसपैठियों पर कार्रवाई के मुद्दे पर पाकिस्तान की गोलमोल बंद नहीं हुई।उल्टे सरताज अजीज भारत से ये कहने लगे कि फौज को नियंत्रण रेखा से दूर रखें- हवाई हमला और फौजी कार्रवाई रोक दें- पाकिस्तानी सेना इसमें शामिल नहीं है।भारत के आरोप गलत हैं।लाहौर समझौते के मुताबिक वार्ता से ही समाधान निकलेगा।भारत का कहना था पाक ने नियंत्रण रेखा लांघ कर तनाव पैदा किया है और वो लौट जाएं तो तनाव रुक जाएगा।पाक विदेश मंत्री अपने ही बयानों में फंस गए। दरअसल पाकिस्तान इस यात्रा से अपनी जनता को संदेश देना चाहता था कि पाक ने भारत को करगिल में कब्जाए गए क्षेत्रों पर बात करने के लिए मजबूर कर दिया है। पर अच्छी बात ये रही कि अमेरिका ने मान लिया था कि करगिल में पाकिस्तान ने नियंत्रण रेखा का उल्लंघन किया है।लिहाजा पाकिस्तान इस मकसद में कामयाब नहीं हो पाया। पाकिस्तान को चीन से समर्थन की उम्मीद थी पर उसने भी पाकिस्तान को बातचीत से निपटारे की सलाह दी।पाक विदेशमंत्री चीन से होकर दिल्ली पहुंचे थे।
सरताज अजीज ने लाहौर मसौदे का हवाला देकर कहा कि करगिल विवाद के निपटारे के लिए एक कार्यदल बना लें चीन की तर्ज पर।लेकिन अगर इसके लिए भारत तैयार हो जाता तो पाकिस्तान को इस बात के प्रचार में सफलता मिलती कि भारत पाक के बीच नियंत्रण रेखा स्पष्ट नहीं है ,पाक सेना अर्से से यही दुष्प्रचार करती आ रही है। सच्चाई तो ये है कि भारत और पाकिस्तान की नियंत्रण रेखा 1972 में ही 19 नक्शों की मदद से तय कर ली गयी थी।और सत्ताईस साल तक पाकिस्तान इसे मानता भी आया है। एक बड़े रायनयिक तबके का उस समय ये मानना था कि पाकिस्तान करगिल के कांटे से शिमला समझौते की फांस को निकालना चाहता था। और कश्मीर के वजूद को फिर विवादित करना चाहता था। पर भारत ने उसका ये हमला भी नाकाम कर दिया।
जसवंत सिंह का चीन दौरा
पाक विदेश मंत्री के भारत से निकलने के कुछ ही घंटे बाद जसवंत सिंह चले गए चीन जिसके साथ रिश्ते पोखरण ब्लास्ट के बाद से ठंडे बस्ते में थे। इधर युद्ध के मैदान में भारतीय सेना का स्ट्रैटजिक विश्राम पूरा हो गया।सेना पूरी तैयारी के साथ दुश्मन पर आघात के लिए तैयार थी।हाइवे को बंधक बनाने वाली चोटियों से दुश्मन को हटाने के लिए हमले की तारीख का सूर्योदय हो चुका था।
तारीख: 13 जून 1999
स्थान: तोलोलिंग,द्रास
अस्सी डिग्री पर झुकी सपाट चट्टानों का इलाका बर्फ में डूबा था।हर कदम पर खतरा मौत की चादर लपेटे पसरा था।सुर्ख बर्फ का हर तिनका लाल खून की प्यास में चटक रहा था।16000 फीट ऊंचा नंगा पहाड़ दुश्मन के लिए आइने की तरह था जिसके आगे कुछ भी नहीं छिपता है।इस बेहद मुश्किल पहाड़ी पर हमले के लिए टू राजरिफ पूरी तरह तैयार थी।और नीचे तैयार थी आग उगलने को कुख्यात बोफोर्स तोप।दुश्मन की चोटी से ठीक 300 मीटर नीचे तैयार फायरबेस में टू राजरिफ के सीओ कर्नल रवीन्द्र नाथ अपने चुनिंदा 90 लड़ाकों के सामने खड़े थे।जिन्हें भीम,अर्जुन और अभिमन्यु नाम के तीन टीम में बांटा गया था।तोलोलिंग हमले के लिए बनी टीम में ज्यादातर यूनिट के खिलाड़ी थे।नब्बे लोगों में 11 तोमरों की एक टुकड़ी भी थी।कर्नल ने बेहद तनावभरे माहौल में भावुक होकर कहा" आप ने जो मांगा वो मैंने दिया,अब आपकी बारी है"।इससे पहले कि कर्नल चुप होते सूबेदार भंवर सिंह ने कहा "श्रीमान कल सुबह तोलोलिंग की चोटी पर मुलाकात होगी"।
कर्नल ने मेजर विवेक गुप्ता,मेजर पद्मपाणी आचार्य और कैप्टन एन केंगरूस के कंधे पर जिम्मेदारी का हाथ रख दिया।कूच हुआ सैनिकों ने पहाड़ी पत्थरों की ओट में पोजीशन ले ली।पूरे हमले का रिहर्सल पहले ही हो चुका था।कर्नल रवीन्द्रनाथ ने पिछले 10 दिन में नक्शों और दूरबीन की मदद से पूरी तोलोलिंग पहाड़ी के एक एक हिस्से को नाप लिया था।योजना थी कि तीन तरफ से हमला होगा।इसके लिए नायक दिगेंद्र कुमार ने तोलोलिंग के सबसे मुश्किल रास्ते को आसान बनाने का जिम्मा संभाला।10 तारीख से ही चोटियों पर रूसी कील गाड़ कर चढ़ने के लिए रास्ता बनाना शुरू कर दिया था।100 मीटर लंबे और 10 टन का वजन उठा सकने वाले इस रस्से से दिगेंद्र ने हमले का सामान और अटैक टीम दोनो को उनकी मंजिल के पास तक पहुंचाया।लगातार 14 घंटे की मेहनत के बाद असलह और सैनिक हमले की जगह के बेहद करीब 12 जून को पहुंचे।यहां उन्हें मेजर गुप्ता और उनकी टीम मिली।अब टारगेट थे तोलोलिंग की चोटी पर बने 11पाकिस्तानी बंकर।
इससे पहले की युद्ध शुरू हो मैं आपको इस लड़ाई की दो बेहद भावुक बातें बताना चाहता हूं।ग्यारह तोमरों की जिस टोली का अभी जिक्र हुआ उसमें सबसे कम उम्र के थे लेफ्टीनेंट प्रवीण सिंह तोमर।जो कि एक प्लाटून का नेतृत्व कर रहे थे।तोमरों का बड़ा गौरवमयी युद्ध इतिहास है वो मारने पर भरोसा करते हैं मरने पर नहीं।प्रवीण तोमर जब प्लाटून को लेकर बढ़े तो हवलदार यशवीर तोमर ने कहा साहब ग्यारह हैं ग्यारह जीत के लौटेंगें।
एक बात और कि इन नब्बे के नब्बे लोगों ने 12 तारीख की रात को अपने घरवालों के नाम चिट्ठियां लिखीं थीं कि अगर युद्ध से न लौटें तो घरवालों को उनकी आखिरी निशानी भेज दी जाए।युद्ध के मैदान में चलने से पहले आपको बता दें कि ये बेहद भीषण और खूनी लड़ाई मानी जाती है,और मुश्किल इतनी की इसकी तुलना 1965 में हाजीपीर दर्रे में चली 32 दिन की नरकीय जंग से की जाती है।
तारीख: 12जून-13 जून की रात, 1999
स्थान : तोलोलिंग,द्रास
समय: शाम 6:30 मिनट
हमले से चार घंटे पहले नीचे से तोपखाने की 120 तोपों का मुंह खोल दिया गया।कुछ घंटे के भीतर करीब 10000 गोले दागे गए।इनसे निकला बारूद 50000 किलो टीएनटी के बराबर था।जो दिल्ली जैसे शहर को पूरी तरह बर्बाद कर देने से काफी ज्यादा था।राजपूताना रायफल्स के अधिकारी उस रात को याद करके कहते हैं कि ऐसी दिवाली हमने पहले कभी नहीं देखी। गोलाबारी इतनी खतरनाक थी कि एक पहाड़ी 5140 का नाम ही 'बर्बाद बंकर' रख दिया गया।गोलाबारी रुकने के बाद मेजर विवेक गुप्ता की टुकड़ी अपने दस साथियों के साथ आगे बढ़ी।नायक दिगेंन्द्र भी उनके ही साथ थे।अचानक ये दुश्मन के एक बंकर के सामने आ गये।नायक दिगेन्द्र के हाथों में जब एक गरम एलएमजी की बैरल लगी तो उन्हें इसका अहसास हुआ। नायक ने फौरन ग्रेनड बंकर के भीतर डाल दिया।पहला बंकर खत्म हो चुका था।पर नीचे से हो रही गोलाबारी का कवर हटते ही चोटी पर बैठा दुश्मन पहाड़ी पर खिसक रहे वीरो पर फिर हमला कर रहा था।पाकिस्तान से आ रहे गोले भी दिक्कत कर रहे थे।तब सूबेदार शिवनायक ने जान पर खेल कर दुश्मन तोपों की टोह ली और अपने मेजर को सही जानकारी दी...लिहाजा मेजर विवेक गुप्ता ने तोपों का मुंह एक मीटर ऊंचा करवा फिर गोलाबारी करवायी।अब दुश्मन की तोप और तोलोलिंग पर एक साथ गोले गिरने शुरू हुए,कुख्यात बोफोर्स पाकिस्तानी तोपों को संभाल रही थी तो दूसरी तोपें पहाड़ी पर बैठ घुसपैठियों को,थोड़ी ही देर में पाक गोलाबारी बंद हो गयी।इससे दुश्मन थोड़ा ढीला पड़ा।और भारतीय सेना आगे बढ़ी।11 तोमरों की टोली में लांस नायक यशवीर सिंह और कर्नल रवीन्द्र नाथ से सुबह चोटी पर मिलने का वादा करने वाले सूबेदार भंवर सिंह भी इसी दल में थे।सब बेहद वीरता से लड़ रहे थे।
दुश्मन ने तोलोलिंग में बारूदी सुरंगे भी बिछा रखी थीं।मेजर पद्मपाणि आचार्य जिस रास्ते से तोलोलिंग पर चढ़ रहे थे उसमें सैनिकों को इससे काफी नुकसान हुआ।पर मेजर आचार्य बारूदी सुरंगों को पार कर दुश्मन के बंकर तक पहुंचे और बंकर खत्म किए । उधर दूसरी ओर नायक दिगेंद्र ने एक एक कर अपने सभी साथियों को खो दिया पर हिम्मत नहीं।नायक दिगेंद्र ने 11 बंकरों में 19 हथगोले फेंके।पाकिस्तानी मेजर अनवर खान अचानक उनके सामने आ गया। दिगेंद्र ने छलांग लगाई और अनवर खान पर झपट्टा मारा। दोनों लुढ़कते-लुढ़कते काफी दूर चले गए। अनवर खान ने भागने की कोशिश की तो उसकी गर्दन पकड़ ली। दिगेंद्र जख्मी था पर मेजर अनवर खान के बाल पकड़ कर सायानायड डैगर से गर्दन काटकर भारत माता की जय-जयकार की। दिगेंद्र पहाड़ी की चोटी पर लड़खडाता हुआ चढा और 13 जून 1999 को सुबह चार बजे वहां तिरंगा झंडा गाड़ दिया।ये युद्ध मेजर विवेक गुप्त के साहस के लिए भी याद रखा जाएगा,दो राजपूताना रायफल्स के मेजर विवेक गुप्ता। उन्न्तीस साल के अधिकारी की पत्नी भी फौज में थी।पिता रिटायर्टड कर्नल थे। मेजर विवेक ने आठ जून को अपने पिता को खत लिखा। जिसमें उन्होंने लिखा कि- आपको मुझ पर नाज होना चाहिए,मैं वर्दी पहन कर देश के लिए कुछ कर रहा हूं, इस समय एक कंपनी कमांडर होना शानदार अनुभव है- पर उनका ये खत उनके अंतिम संस्कार के आधे घंटे बाद मिला।13 जून को ही सात साल पहले उन्हें सेना मे कमीशन मिला था।
सुबह चार बजे के आसपास कर्नल रवीन्द्रनाथ अपनी टुकड़ी के साथ पीक पर पहुंचे।उन्होंने अपने साथियों से जो मांगा था वो उन्हें मिल चुका था पर शहीद साथियों के शवों के साथ जीत का जश्न नहीं मना सकते थे।युद्ध की विडंबना है कि यहां जीत की जरूरत शोक का मौका नहीं देती।पर एक और सच्चाई है, कि जान की बाजी लगा कर पायी गयी विजय का जश्न वियोग के स्वरों को नहीं सुनता।दो राजपूताना राइफल्स के कर्नल रवीन्द्र नाथ ने अपने ब्रिगेड कमांड को रेडियो पर संदेश दिया कि- 'मेरी बटालियन को जो काम दिया गया था वो हमने पूरा कर लिया है। हमने तोलोलिंग पर फतह पा ली है सर।' इस जीत पर सेना प्रमुख जनरल मलिक ने कर्नल रवीन्द्र नाथ को सीधी बधाई दी जैसा कि सेना में बहुत कम बार होता है।
इस मुश्किल चोटी पर ये बेहद मुश्किल जीत थी। तोलोलिंग पर पहुंचे सैनिक और अधिकारियों को बंकर की तलाशी में ढेर सारा घी मिला,मक्खन मिला,शहद मिला और अन्नानास के डिब्बे। घी को जलाकर सैनिकों ने ठंड से खुद को बचाया क्योंकि तापमान माइनस 5 से 11 डिग्री तक था।सुबह होने पर सैनिकों ने शहद और मक्खन खाकर जीत की खुशी मनायी।
पर इस जीत का हिसाब लगाने जब कर्नल रवीन्द्र नाथ बैठे तो पाया कि उनके चार अधिकारी, दो जेसीओ और 17 जवान शहीद हो गए। 70 घायल थे जिनमें से छह हमेशा के लिए अपंग हो गए थे।20 की हालत तो ऐसी कि वो दोबारा कभी फौज में काम करने लायक नहीं बचे हैं।इसके बावजूद तोलोलिंग जीत के मुकम्मल होने में अभी और खून बहना बाकी है।
तोलोलिंग में जीत
तोलोलिंग विजय का महत्व इसी बात से पता चलता है कि तोलोलिंग विजय की बात सुनते ही रक्षामंत्री और प्रधानमंत्री सीधा युद्धक्षेत्र में पहुंच गए।जैसे ही वो हवाई अड्डे पर उतरे कुछ दूरी पर पाक सेना के बम गिरे।जॉर्ज ने वाजपेयी से कहा,देखिए पाकिस्तान आपको सलामी दे रहा है।पर ये चिंता की बात थी,ऐसा लगा जैसे पाकिस्तान की तोपों को पीएम वाजपेयी की करगिल यात्रा के रुट की पुख्ता जानकारी थी। जहां वाजपेयी जी को शरणार्थियों से मिलना था उस बारू गांव में पाक सेना ने वाजपेयी के पहुंचने से पहले चार गोले दागे।नतीजतन सुरक्षा कारणों से पीएम वाजपेयी को द्रास सेक्टर के मतायन क्षेत्र में नहीं जाने दिया गया।जहां ऑफीसर्स मेस में गोला गिरने की वजह से एक हवलदार शहीद हुआ। 16 जून को मतावन में सेना के ब्रिगेड मुख्यालय पर गोलाबारी हुई तो मुख्यालय को नीचे मीनामार्ग में स्थानांतरित करना पड़ा।पाकिस्तानी तोपखाने का हमला कितना भीषण था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि,हमारे शहीदों में से अस्सी फीसदी तोप के गोलों से वीरगति को प्राप्त हुए।
तारीख: 13 जून की रात
नवाज शरीफ ने फिर वाजपेयी से फोन पर बात की।शायद वाजपेयी के करीब गिरे गोलों पर खेद जता रहे होंगे। पर वाजपेयी ने भाव नहीं दिया।14 जून को अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन का फोन आया पीएम अटलविहारी वाजपेयी के पास.अमेरिका ने भारत के साहस और धैर्य की तारीफ की।15 जून को क्लिंटन ने नवाज शरीफ से फोन पर कहा कि नियंत्रण रेखा खाली करो। जल्दी से जल्दी बातचीत कर विवाद सुलझाओ।पर अभी मोर्चे पर तोलोलिंग की जीत पूरी नहीं हुई थी।
तारीख: 14 जून 1999
स्थान : हंप की जीत
टाइगर हिल के एक सिरे रॉकी नॉब में चट्टान को तकिया बना कर लेटे 18 ग्रेनेडियर्स के मेजर जॉयसेनगुप्ता रेडियो पर बुदबुदा रहे हैं '' बर्फ गिर रही है मेरे सैनिकों के जूते फट रहे हैं हम 300 ऐसी बारूदी सुरंगों से घिरे हैं जो कहां कब और कैसे फटेंगीं हमें नहीं पता पर हम यहां बोर हो रहे हैं हमें कुछ और करने को दिया जाए" तभी दूसरी ओर से उनके सीओ कर्नल खुशहाल ठाकुर की बेहद साधी हुई आवाज सुनाई देती है।"बधाई हो बहुत अच्छे वहीं डटे रहो बारूदी सुरंगों से बचो" संदेश खत्म हुआ तो मेजर जॉयसेन गुप्ता को लोग छेड़ने लगे...मेजर युद्ध से पहले छुट्टी लेकर हैदराबाद गए थे शादी के लिए लड़की देखने।लड़की वालों ने कहा कोई भरोसा नहीं कि लौटोगे या नहीं...जॉयगुप्ता लौट आए...युद्ध जीत लिया तो किसी सीनियर ने मजाक किया कि सोचो लड़की दौड़ी हुई चली आ रही है तो जॉयगुप्ता बोले सर भाग जाऊंगा लाहौर। कुछ देर बाद ही रेडियो पर आदेश मिला की हंप को घुसपैठियों से खाली करवाओ।रात आठ बजे मेजर जॉयगुप्ता ने आदेश पर कदम बढ़ाए।चार्ली कंपनी बारूदी सुरंगों को पार कर तोलोलिंग के कूबड़ कहे जाने वाले इलाके में घुस गयी।मॉर्टर,एमएमजी की फायरिंग के बीच एक के बाद एक शत्रु बंकर पर विजय हासिल की गयी और तिरंगा हंप पर फहराया गया।
तोलोलिंग की जीत के चार दिन के भीतर ही-भारतीय सेना ने आसपास की चार प्रमुख पहाड़ियों- प्वाइंट 4590,रॉकी नॉब,हंप और प्वाइंट 5140 पर जीत हासिल कर घुसपैठियों को खदेड़ दिया। तो आसमान से मिराज 2000 ने खूब आग बरसायी। मंथोडालो क्षेत्र में बड़ी तादाद में घुसपैठिए मारे गए। सेना ने खुलासा किया कि उसके पास पुख्ता सबूत हैं कि युद्ध में पाकिस्तानी सेना की नॉर्दन लाइट इन्फ्रेंट्री की तीसरी,चौथी,छठी बटालियन और स्पेशल सर्विस ग्रुप के सैनिक शामिल हैं।