दो कूबड़ वाले बैक्ट्रियन कैमल लद्दाख के बर्फीले इलाकों में भारतीय सेना के साथ करेंगे गश्त, जानिए इनकी खासियतें
चीन से वास्तविक नियंत्रण रेखा के इलाकों में लद्दाख के बर्फीले हिस्सों और पहाड़ी इलाकों में गश्त करने में भारतीय सेना अब खास बैक्ट्रियन कैमल का इस्तेमाल करेगी।
नई दिल्ली। पूर्वी लद्दाख में भारत-चीन के बीच तनाव को लेकर भारतीय सेना ने एक बड़ी योजना पर काम शुरू कर दिया है। चीन से वास्तविक नियंत्रण रेखा के इलाकों में लद्दाख के बर्फीले हिस्सों और पहाड़ी इलाकों में गश्त करने में भारतीय सेना अब खास बैक्ट्रियन कैमल का इस्तेमाल करेगी। बैक्ट्रियन कैमल दो कूबड़ वाले ऊंटों को कहा जाता है और इन्हें ऊंचे इलाकों और बर्फीले क्षेत्र में काम के लिए उपयुक्त माना जाता है। दो कूबड़ वाले बैक्ट्रियन कैमल को जल्द ही जल्द ही भारतीय सेना में शामिल किया जाएगा।
डीआरडीओ ने दो कूबड़ या बैक्ट्रियन कैमल पर की रिसर्च
लेह में रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) ने दो कूबड़ या बैक्ट्रियन ऊंटों पर रिसर्च की है, जो पूर्वी लद्दाख क्षेत्र में 17,000 फीट की ऊंचाई पर 170 किलोग्राम भार उठा सकते हैं। न्यूज एजेंसी एएनआई से बात करते हुए डीआरडीओ के वैज्ञानिक प्रभु प्रसाद सारंगी ने कहा, 'हम दो कूबड़ वाले ऊंटों पर रिसर्च कर रहे हैं, वे स्थानीय जानवर हैं। हमने इन ऊंटों की धीरज सहने और भार उठाने की क्षमता पर शोध किया है। हमने पूर्वी लद्दाख क्षेत्र में शोध किया है। चीन सीमा के पास 17,000 फीट की ऊंचाई पर पाया गया कि वे 170 किलो का भार ले जा सकते हैं और इस भार के साथ वे 12 किलोमीटर तक गश्त कर सकते हैं।'
दो कूबड़ वाले ऊंटों की आबादी बढ़ाने पर दिया जा रहा है ध्यान
इसके अलावा, इन स्थानीय दो कूबड़ वाले बैक्ट्रियन कैमल की तुलना एक कूबड़ वाले ऊंटों से भी की गई थी, जिन्हें राजस्थान से लाया गया था। ये ऊंट भोजन और पानी की कमी के कारण तीन दिनों तक जीवित रह सकते हैं। लेह के डिफेंस इंस्टीट्यूट ने रंगोली नाम की एक ऊंटनी को ट्रेंड किया। ऊंटनी रंगोली से चिंकू और टिंकू नाम के दो बच्चे पैदा हुए। डिफेंस इंस्टीट्यूट के ब्रीडिंग प्रोग्राम के तहत इनका पालन-पोषण किया गया। सारंगी ने कहा, 'अब डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ हाई एल्टीट्यूड रिसर्च (DIHAR) इन दो कूबड़ वाले ऊंटों की आबादी बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है।' उन्होंने कहा कि परीक्षण किया जा चुका है और इन ऊंटों को जल्द ही सेना में शामिल किया जाएगा। इन जानवरों की आबादी कम है, लेकिन प्रजनन के बाद जब हम संख्या में पहुंच जाएंगे, तब इन्हें शामिल किया जाएगा। बैक्ट्रियन कैमल भोजन और पानी की कमी के कारण 72 घंटे यानी 3 दिन तक जीवित रह सकते हैं।
'अगले 5-6 महीने में बैक्ट्रियन कैमल सेना को सौंप दिए जाएंगे'
लेह में इनकी ब्रीडिंग चल रही है ताकि सेना को जरूरत के हिसाब से ऐसे ऊंटों की सप्लाई की जा सके। सूत्रों के मुताबिक, फिलहाल सेना के 50 बैक्ट्रियन कैमल की जरूरत है। सेना के वेटनरी ऑफिसर कर्नल मनोज बात्रा ने इस बारे में कहा, ऐसी परिस्थिति (लेह-लद्दाख में मौसम के लिहाज से) के लिए बैक्ट्रियन कैमल ज्यादा कारगर हैं। कर्नल मनोज बात्रा ने कहा कि अगले 5-6 महीने में ये ऊंट सेना को सौंप दिए जाएंगे। लद्दाख का बैक्ट्रियन कैमल मुश्किल हालात में काम के लिहाज से फिट बैठता है, एक तरह से कहें तो नुब्रा घाटी और लद्दाख के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हैं। ये ऊंट सेना के लिए ऐसी जगहों पर भी अच्छे ट्रांसपोर्टर के तौर पर काम आ सकते हैं, जहां वाहनों की आवाजाही संभव नहीं है।
लद्दाख के हालात के अनुकूल हैं बैक्ट्रियन कैमल
बैक्ट्रियन कैमल लद्दाख के मुश्किल हालातों में बेहद अनुकूल हैं। सूत्रों का कहना है कि बैक्ट्रियन कैमल दौलत बेग ओल्डी और डेप्सांग के हिस्से में तैनात किए जा सकते हैं। इसके लिए यहां पर सेना के जवानों को निर्देश दिए गए हैं। कोशिश है कि लद्दाख के उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में पट्रोलिंग का काम लगातार जारी रखा जाए। ऐसे में बैक्ट्रियन कैमल को यहां तैनात करने से पहले जवानों को खास ट्रेनिंग भी दी जा रही है। बता दें कि, अभी तक भारतीय सेना इन दो कूबड़ वाले ऊंटों का इस्तेमाल गश्त करने के दौरान नहीं करती थी। अभी तक सेना पारंपरिक रूप से क्षेत्र के खच्चरों का इस्तेमाल करती है, जोकि लगभग 40 किलोग्राम भार ले जाने की क्षमता रखते हैं।