बेरोजगारी–महामारी से बेकाबू हुई रफ्तार, क्या करे सरकार
महामारी के दौरान बेरोजगारी बढ़ने के साथ एक चौंकाने वाली सच्चाई यह भी है, कि कोरोनाकाल में जब अर्थव्यवस्था की रफ्तार 7.3 फीसदी नकारात्मक रही थी तब भी देश के दौलतमंदों की दौलत 35 फीसदी बढ़ गयी।
बेरोजगारी हमेशा से देश के सामने बड़ी चुनौती बनी रही है, लेकिन इस साल यह चुनौती भयानक रूप ले चुकी है। देश में हर साल लगभग एक करोड़ नए बेरोजगार जुड़ते जाते हैं और जनता को रोजगार उपलब्ध कराना हर सरकार के सामने बड़ी चुनौती रहता है, लेकिन इस साल महामारी की वजह से यह चुनौती और भी भयानक हो चुकी है। यही हाल रहा तो देश की बड़ी आबादी के हाथ में खरीदने के लिए रकम नहीं होगी। क्या हिन्दुस्तान इसी दिशा में आगे बढ़ रहा है?
महामारी के दौरान बेरोजगारी बढ़ने के साथ एक चौंकाने वाली सच्चाई यह भी है, कि कोरोनाकाल में जब अर्थव्यवस्था की रफ्तार 7.3 फीसदी नकारात्मक रही थी तब भी देश के दौलतमंदों की दौलत 35 फीसदी बढ़ गयी। महामारी के दौर में बेरोज़गारी ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। बीते साल महामारी के बीच अप्रैल और मई में बेरोज़गारी की दर 23.5 और अप्रैल-जून तक 20.9 फीसदी तक पहुंच गयी थी। 2021 में मई के महीने में बेरोज़गारी दर 14.7 फीसदी के स्तर पर जा पहुंची। हालांकि जून में इसमें थोड़ा सुधार आया। फिर भी ये 9.19 प्रतिशत के स्तर पर बनी हुई है।
वैश्विक स्तर पर भारत था बेहतर, मगर अब नहीं
बीते 10 साल में वैश्विक बेरोज़गारी की औसत दर भारत में बेरोज़गारी की दर के आसपास रही थी, मगर भारत इस औसत से थोड़ा बेहतर स्थिति में रहा था। यह बेहतरी अब खत्म हो चुकी है। 2020 में जहां वैश्विक बेरोज़गारी 5.42 फीसदी थी, भारत में बेरोज़गारी की सालाना दर 7.11 फीसदी पहुंच गयी। 2021 के आंकड़े बता रहे हैं कि हालात और भी बदतर होते जा रहे हैं।
(नीचे तालिका पर नज़र डालें तो स्थिति स्पष्ट होती है)
बेरोज़गारी दर: दुनिया बनाम भारत
साल | दुनिया | भारत |
2014 | 5.63 | 5.61 |
2015 | 5.64 | 5.57 |
2016 | 5.67 | 5.51 |
2017 | 5.57 | 5.42 |
2018 | 5.39 | 5.33 |
2019 | 5.4 | 5.36 |
2020 | 5.42 | 7.11 |
यूपीए राज में बेरोजगारी : दुनिया बनाम भारत
साल | दुनिया | भारत |
2010 | 5.92 | 5.64 |
2011 | 5.8 | 5.64 |
2012 | 5.77 | 5.65 |
2013 | 5.77 | 5.67 |
स्रोत- statisa 2021 |
महामारी के पहले से ही बेरोजगारी का ख़ौफ़
महामारी के पहले से ही बेरोजगारी का ख़ौफ़ दिखने लगा था। साल दर साल गंभीर होती बेरोजगारी को समझना हो तो यह आंकड़ा महत्वपूर्ण है-
वर्ष | बेरोजगारी दर |
मार्च 2016 | 8.7% |
मार्च 2017 | 4.7% |
मार्च 2018 | 6% |
मार्च 2019 | 6.7% |
2019 में अप्रैल से जून के बीच बेरोजगारी की दर 8.9 फीसदी पहुंच गयी थी। जबकि, महामारी से ठीक पहले के तीन महीने जनवरी-मार्च 2020 में बेरोजगारी की दर 9.1 थी। जुलाई 2020 से जून 2021 तक 12 महीनों में औसत बेरोजगारी की दर 7.83 है। बेरोजगारी की दर मई 2021 में 11.9 फीसदी पहुंच गयी थी और यह लगातार बढ़ रही है।
जी-20 में भारत 5वें नंबर पर
जी-20 के देशों में भारत से बुरी स्थिति में केवल चार देश हैं- दक्षिण अफ्रीका जहां मार्च 2021 में सबसे ज्यादा 32.6 फीसदी बेरोजगारी है। उसके बाद स्पेन का नंबर आता है जहां 15.98 फीसदी बेरोजगारी है और तब ब्राजील और तुर्की हैं जहां अप्रैल 2021 में क्रमश: 14.7 और 13.9 फीसदी बेरोजगारी रही। मई 2021 में भारत 11.9 फीसदी बेरोजगारी के साथ पांचवें नंबर पर है।
महामारी के बाद बेकाबू हुए हालात
महामारी निश्चित रूप से बड़ा संकट लेकर आयी। बेरोज़गारी की रफ्तार अचानक बहुत तेज हो गयी। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकनॉमी यानी सीएमआईई के मुताबिक 2021 में मई लगातार चौथा महीना था जब रोज़गार में कमी आयी यानी बेरोज़गारी बढ़ी। इन चार महीनों में 2 करोड़ 53 लाख लोगों की नौकरी चली गयी। जनवरी मे जहां 40 करोड़ 7 लाख लोग रोज़गार में थे। वहीं मई के अंत में यह संख्या घटकर 37 करोड़ 55 लाख रह गयी। जून में भी रोज़गार में कमी का सिलसिला जारी रहा।
हालात कितने भयावह है इसे समझने के लिए सेंटर ऑफ सस्टेनेबल इम्पलॉयमेंट, अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के संतोष मेहरोत्रा और जजाति के परिदा के शोधपत्र के आंकड़ों पर गौर करें। इसमें कहा गया है कि 2011-2012 और 2017-2018 के दौरान यानी 6 साल में 90 लाख लोगों ने नौकरियां गंवाई थीं। जाहिर है बीते चार महीने में जितनी नौकरियां गयी हैं वह बीते छह साल में छूटी नौकरियों का ढाई गुणा है।
2011-12 से 2017-18 के बीच 90 लाख नौकरियां गईं
महामारी में बेरोज़गारी की समस्या और भी विकराल हुई है लेकिन वास्तव में यह मोदी राज में लगातार गंभीर होती चली गयी है। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी का शोध पत्र इसकी पुष्टि करता है। इसके मुताबिक 2011-12 और 2017-18 के बीच कृषि क्षेत्र में तेजी से लोगों ने रोज़गार गंवाए। प्रति वर्ष 45 लाख दर से कुल 2 करोड़ 7 लाख लोग कृषि से दूर हुए। इस दौरान कृषि और उससे जुड़े क्षेत्रों में लोगों की भागीदारी 49 फीसदी से घटकर 44 फीसदी रह गयी। इसी दौरान 35 लाख लोगों ने मैन्यूफैक्चरिंग के क्षेत्र में रोज़गार गंवाए। मैन्यूफैक्चरिंग में 12.6 फीसदी से गिरकर रोज़गार 12.1 फीसदी रह गया। नॉन मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में जहां 2004-05 में हर साल 40 लाख रोज़गार पैदा हो रहे थे वहीं 2011-12 और 2017-18 के दौरान सिर्फ 6 लाख लोगों को रोज़गार मिले।
चिंताजनक है श्रम बल में लगातार कमी
भारत में बेरोज़गारी को एक समस्या के तौर पर समझना है तो हमें रोज़गार के सेक्टर और पूरे श्रम बल भागीदारी की स्थिति को भी समझना होगा। 2020 में भारत में कुल कामगारों की संख्या 50.1 करोड़ थी। इनमें से 41.19 फीसदी कृषि क्षेत्र में काम कर रहे थे तो औद्योगिक क्षेत्र में 26.18 फीसदी और सेवा के क्षेत्र में 32.33 प्रतिशत कामगार लगे हुए थे।
उद्योग में श्रम बल की भागीदारी लगातार कम होती जा रही है। यह गंभीर चिंता का विषय है। 2014 में जब नरेंद्र मोदी की सरकार ने सत्ता संभाली थी तब श्रम बल की भागीदारी 52.5 फीसदी थी। 2016 में यह 50.4 फीसदी और फिर 2018 में 49.8 फीसदी के स्तर पर जा पहुंची। सीएमआईई के मुताबिक, 2019-20 में श्रम बल की भागीदारी 42.7 प्रतिशत रह गयी थी। अप्रैल-मई 2021 में यह 40 फीसदी के स्तर पर आ गयी। यह 40 फीसदी तक पहुंचने के बाद और भी गिरकर 39.7 फीसदी हो चुकी है। ताजा श्रम बाजार सूचकांक बताता है कि रोजगार की दर मई 2021 में 35.3 फीसदी से गिरकर 6 जून 2021 तक 34.6 फीसदी हो चुकी है। अप्रैल-मई 2020 के बाद से रोजगार में श्रमिकों की भागीदारी अपने सबसे बुरे दौर में है।
नाकाफी रहे रोज़गार सृजन के प्रयास
ऐसा नहीं है कि रोज़गार के लिए सरकारों ने प्रयास नहीं किए। मोदी सरकार कई योजनाएं लेकर आईं लेकिन इन योजनाओं से जो रोजगार पैदा हुए उनकी संख्या बहुत मामूली रही। न सिर्फ साल में एक करोड़ बेरोजगारों की खड़ी होती फौज के मुकाबले यह संख्या बेहद कम थी, बल्कि छूटते रोजगार की वजह से विकराल होती रही स्थिति को थामने में भी ये रोजगार समर्थ नहीं हो सकते थे। प्रधानमंत्री रोजगार योजना के तहत 2016-17 से लेकर 2020-21 के बीच चार साल में 21 लाख 71 हजार लोगों को रोजगार मिले तो 5 साल में पंडित दीन दयाल ग्रामीण कौशल योजना के जरिए 5 लाख 49 हजार लोगों को नौकरियां मिलीं। दीन दयाल अंत्योदय योजना से 5 साल में 5 लाख 14 हजार 998 लोगों को काम मिला। जाहिर है पांच साल में पांच करोड़ नौकरियां होतीं तभी स्थिति संभल सकती थीं। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ।
2 करोड़ सालाना रोज़गार की उम्मीद के बदले बेरोज़गारी की ऐसी भयानक तस्वीर अच्छे दिनों की तो कतई नहीं हो सकती। अर्थव्यवस्था के पहिए की रफ्तार तेज़ करके ही बेरोज़गारी की रफ्तार पर ब्रेक लगायी जा सकती है। आर्थिक विकास और बेरोज़गारी के बीच व्युत्क्रमानुपाती (उल्टा) संबंध है। बंद हुए कारोबार को जिंदा करना, छोटे-मझोले उद्योगों को दोबारा खड़ा करना और समग्रता में कारोबार के लिए माहौल बनाना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके लिए पूंजीनिवेश के प्रवाह सही किए जाने की सख़्त ज़रूरत है। औद्योगिक और कृषि विकास में तालमेल ज़रूरी है। बेरोज़गारी की वजह से हताश और निराश श्रमबल यानी बेरोज़गारों को तत्काल आर्थिक मदद की भी ज़रूरत है ताकि महामारी के दौर में उन्हें बचाया जा सके।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)