रिपोर्ताज: उदासियों के साये में सरकारी सुविधाओं से महरूम जिंदगानी
ये लोग सरकारी योजनाओं के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। ऐसे में सरकार की ज़िम्मावारी होनी चाहिए कि अपने कर्मचारियों को ऐसे लोगों के बीच भेज कर, इनलोगों से बात करे। ऐसे लोगों को शिक्षा,स्वास्थ्य और आवास उपलब्ध कराये।
रिपोर्ताज-आदित्य शुभम
एक सुबह नोएडा के सेक्टर 16 मेट्रो स्टेशन के पास स्थित झुग्गी की तरफ़ जा रहा था, वहां रहने वाले लोगों से बातचीत कर यह जानने कि क्या उनकी ज़िन्दगी में 'सब चंगा सी' है या नहीं। लेकिन अचानक से मेरी नज़र कुछ लोगों पर पड़ी जो देर रात को काम से लौटने के बाद आपस में बातचीत कर रहे थे। इन लोगों में महिलाएं और पुरुष दोनों शामिल थे।
अमूमन ऐसा कम ही होता है कि इतनी देर तक सब इकट्ठे होकर बातचीत करते हैं। काम को लेकर देर रात को अपनों के बीच लौटना और सुबह जल्दी उठकर काम की तलाश में निकल जाना पुरुषों की दिनचर्या होती है। यह बात इन्हीं लोगों में एक व्यक्ति ने तस्वीर ना खींचने और अपना नाम ना बताने की शर्त पर बताई। जिस व्यक्ति ने मुझसे बात की, पूरी बातचीत के दौरान लगा कि वह कैमरे की नज़र से बचना चाहता था। इस बात का एहसास तब हुआ, जब उसने कहा कि मीडिया वाले रिकॉर्डिंग करके ले जाते हैं और टीवी पर दिखा देते हैं। बाद में पुलिस आकर हमारे झोपड़ियों को तोड़ देती है। हमारे बातचीत का सिलसिला जैसे ही शुरू हुआ था, दो तीन महिलाएं क़रीब आकर मुझसे अपना दर्द बयां करने लगीं। ये सभी बिहार की राजधानी पटना के अनीसाबाद इलाक़े के रहने वाले थीं। कुछ महिलाएं और पुरुष अपनी बात साझा करने में हिचक रहे थे, जिसकी वजह से वो दूर से हमें ग़ौर से देख रहे थे कि हम क्या कर रहे हैं या क्या करने वाले हैं। हमारी बातचीत आगे बढ़ी। मैं इन छोटे-छोटे बच्चों के बारे में पूछा कि क्या यह सभी पढ़ने जाते हैं?
एक महिला ने बड़ी ही उदासी से कहा कि नहीं...नहीं जाता है सब पढ़ने...कहां जाएगा पढ़ने...6 महीने तक मैं अपने बच्चों को सेक्टर 18 में एक स्कूल है...उसमें भेजी लेकिन ‘क’ भी लिखने नहीं आया। एक मास्टर जी यहीं उस पेड़ के नीचे (पास के एक पेड़ की तरफ़ इशारा करते हुए) पढ़ाने आते थे वो भी अब नहीं आते हैं। ऐसे में बच्चे कहां पढ़ पा रहे हैं। दिनभर ऐसे ही इधर-उधर खेलते रहते हैं।
एक महिला जो सालों से यहीं रहती हैं, कहने लगी कि कोई सरकारी आदमी पूछने तक नहीं आता है। और टीवीवाला जब दिखा देता है तो पुलिस आकर बहुत परेशान करती है। झोपड़ियां तोड़ देती है। इतने में पुरुष ने कहा कि जैसे-जैसे साल बीतता जा रहा है...नोएडा में स्वच्छता बढ़ता जा रहा है...नोएडा साफ़-सुथरा होता जा रहा है...साफ़ सुथरा देखने में कितना अच्छा लगता है ना..हो सकता है कि इस वजह से पुलिस हमारी झोपड़ियों को तोड़ देती है।
पुरुष उदास मन से अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहने लगा कि हमलोग क्या करें...बिहार में नौकरी हइए नहीं है..जिसकी वजह से हमलोगों को यह काम करना पड़ता है...मैंने कहा कि नीतीश कुमार इतने दिनों से शासन में हैं, तब भी नौकरी नहीं है? जवाब में पुरुष ने कहा कि आप ही बताइए ना..बिहार में कहां है नौकरी...कम्पनी है ही नहीं तो रोज़गार कहां से मिलेगा। इसलिए हमलोगों को यह सब करना पड़ता है।
एक महिला कहने लगी कि सरकार हमलोगों पर ध्यान देती तो हमलोग भी कुछ काम करते...शहद बेचने, सड़क किनारे बच्चों से ग़ुब्बारा बेचवाने से तो अच्छा रहता कि हमलोग भी कुछ काम करते।
काफ़ी से देर तक बातचीत के बाद महसूस हुआ कि इनलोगों की ज़िन्दगी को बेहतर बनाने के लिए सरकार को ध्यान देना चाहिए। ये लोग सरकारी योजनाओं के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। ऐसे में सरकार की ज़िम्मावारी होनी चाहिए कि अपने कर्मचारियों को ऐसे लोगों के बीच भेज कर, इनलोगों से बात करे। ऐसे लोगों को शिक्षा,स्वास्थ्य और आवास उपलब्ध कराये।