सत्ता पक्ष और विपक्ष में रार, जानिए कितना अहम होता है लोकसभा स्पीकर का पद?
18वीं लोकसभा का पहला सत्र 24 जून से शुरू होगा जो तीन जुलाई तक चलेगा। लोकसभा सचिवालय से मिली जानकारी के मुताबिक 26 जून को स्पीकर पद का चुनाव होगा। कितना अहम होता है स्पीकर का पद, क्या होते हैं अधिकार? जानें इस खास रिपोर्ट में-
लोकसभा चुनाव में एनडीए को जीत मिली है तो वहीं इंडिया गठबंधन को भी जनता ने उम्मीद लायक वोट दिए हैं और उसे विपक्ष की कमान संभालने का मौका दिया है। एनडीए ने पीएम मोदी की नई कैबिनेट भी तैयार कर दी है और मंत्रियों ने अपना कार्यभार भी संभाल लिया है। अब पीएम मोदी की अध्यक्षता में 18वीं लोकसभा का पहला सत्र 24 जून से शुरू होने वाला है। यह विशेष सत्र होगा और यह सत्र 9 दिन यानी 3 जुलाई तक चलेगा। इसी के साथ सदन के संचालन के लिए स्पीकर तय करना होगा और लोकसभा सचिवालय की तरफ से मिली जानकारी के मुताबिक 26 जून को लोकसभा स्पीकर का चुनाव किया जाएगा।
स्पीकर पद के लिए सत्ता पक्ष-विपक्ष आमने-सामने
आजादी के बाद भारत के इतिहास में ये तीसरी बार है कि लोकसभा स्पीकर पद के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ने अपने-अपने उम्मीदवार उतारे हैं। एनडीए के उम्मीदवार ओम बिरला हैं तो वहीं विपक्ष की तरफ से के सुरेश को उम्मीदवार बनाया गया है। अब कल यानी 26 जून की सुबह 11 बजे स्पीकर के लिए चुनाव होगा। इसके बात तय हो जाएगा कि लोकसभा का स्पीकर किसका होगा।
कैसे होता है स्पीकर और डिप्टी स्पीकर का चुनाव
लोकसभा स्पीकर पद के लिए होने वाले चुनाव के लिए सदस्यों द्वारा उम्मीदवारों के समर्थन वाले प्रस्तावों का नोटिस एक दिन पहले यानी 25 जून को दोपहर 12 बजे लोकसभा सचिवालय में जमा किए जा सकते हैं। ये एक प्रक्रिया होती है जिसे नोटिस ऑफ मोशन कहा जाता है। किसी भी सरकार के गठन के बाद लोकसभा के स्पीकर और डिप्टी स्पीकर, ये दोनों पद अहम होते हैं। लोकसभा के लिए अनुच्छेद 93 में कहा गया है कि सदन जितनी जल्दी हो सके अपने दो सदस्यों को स्पीकर और डिप्टी स्पीकर के रूप में चुनेंगे।
संविधान में लोकसभा स्पीकर और डिप्टी स्पीकर के चुनावों के लिए न तो कोई समय सीमा निर्धारित है और ना ही किसी तरह की प्रक्रिया का उल्लेख है। यह पूरी तरह से सदन पर निर्भर है कि वह स्पीकर और डिप्टी स्पीकर का चुनाव कैसे करते हैं।
लोकसभा के स्पीकर के चुनाव के लिए राष्ट्रपति एक तारीख निर्धारित करते हैं और इसके बाद स्पीकर, डिप्टी स्पीकर के चुनाव की तारीख तय की जाती है। चुनाव में सदन से सदस्य अपने बीच से ही किसी एक को इन पदों के लिए चुनते हैं।
आमतौर पर स्पीकर चुने जाने के लिए सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत की जरूरत होती है। इसलिए, आमतौर पर सत्तारूढ़ दल का सदस्य ही स्पीकर बनता है। संविधान में प्रावधान है कि अध्यक्ष का पद कभी खाली नहीं होना चाहिए, इसलिए मृत्यु या इस्तीफे की स्थिति को छोड़कर वह अगले सदन की शुरुआत तक उस पद पर बना रहेगा।
कौन होता है प्रोटेम स्पीकर
वर्तमान लोकसभा के अपने पद से इस्तीफा देने की स्थिति में स्पीकर की जिम्मेदारियां प्रोटेम स्पीकर निभाता है जो चुने हुए सांसदों में सबसे वरिष्ठ होता है। प्रोटेम स्पीकर एक अस्थायी स्पीकर का पद होता है जिसे संसद की कार्यवाही संचालित करने के लिए सीमित समय के लिए नियुक्त किया जाता है। नई लोकसभा की पहली बैठक की अध्यक्षता करने और संसद के नए सदस्यों को शपथ दिलाने का काम प्रोटेम स्पीकर का होता है। इसके साथ ही लोकसभा के स्पीकर के लिए चुनाव और मतदान कराने की जिम्मेदारी भी प्रोटेम स्पीकर की होती है। जैसे ही नए स्पीकर का चुनाव हो जाता है, प्रोटेम स्पीकर का पद अपने आप ही समाप्त हो जाता है।
कितना अहम होता है स्पीकर और डिप्टी स्पीकर का पद
लोकसभा के स्पीकर का पद सत्ताधारी पार्टी या गठबंधन की ताकत का प्रतीक होता है और लोकसभा के कामकाज का पूरा कंट्रोल स्पीकर के हाथ में होता है। संविधान में स्पीकर के साथ डिप्टी स्पीकर के चुनाव का भी प्रावधान है, जो स्पीकर की गैर-मौजूदगी में उसका काम उसी तरह से करता है। लोकसभा में नई सरकार बनते ही स्पीकर चुनने की परंपरा रही है। नियम के मुताबिक पीएम पद की शपथ लेने के तीन दिन के अंदर ही लोकसभा के स्पीकर की नियुक्ति होती है।
स्पीकर के पद की अहमियत इसलिए है कि वह लोकसभा का प्रमुख और पीठासीन अधिकारी होता है। लोकसभा कैसे चलेगी, इसकी पूरी जिम्मेदारी स्पीकर की ही होती है। संविधान के अनुच्छेद 108 के तहत स्पीकर संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक की अध्यक्षता करता है। लोकसभा में विपक्ष के नेता को मान्यता देने का भी वह फैसला करता है। वह सदन के नेता के अनुरोध पर सदन की 'गुप्त' बैठक भी आयोजित कर सकता है।
जब स्पीकर के विशेष अधिकार की दिखी थी अहमियत
साल 1999 में लोकसभा स्पीकर ने विशेष अधिकार का इस्तेमाल किया था और एक वोट से अटल सरकार गिर गई थी। ये एक उदाहरण स्पीकर पद की अहमियत बताने के लिए काफी है।
जानते हैं पूरा वाकया-
13 मार्च 1998 में अटल बिहारी वायपेयी की अगुुआई में एनडीए की नई सरकार बनी थी और इस सरकार को दक्षिण भारत की दो प्रमुख पार्टियों डीएमके और टीडीपी का समर्थन प्राप्त था। तब टीडीपी ने जिद करके अपने नेता जीएमसी बालयोगी को स्पीकर बनवा लिया था। करीब 13 महीने तक सरकार चलने के बाद डीएमके ने अचानक केंद्र में अटल सरकार से समर्थन वापस लेने का ऐलान कर दिया। इसके बाद लोकसभा स्पीकर की जिम्मेदारी अहम हो गई। केंद्र की सत्तारूढ़ अटल सरकार के पास बहुमत है या नहीं, यह परखने के लिए 17 अप्रैल 1999 को अविश्वास प्रस्ताव लाया गया और उस पर वोटिंग कराई गई।
संसद में लोकसभा स्पीकर बालयोगी ने लोकसभा के सेक्रेटरी जनरल एस गोपालन की तरफ एक पर्ची बढ़ाई। सेक्रेटरी गोपालन ने उस पर कुछ लिखा और उसे टाइप कराने के लिए भेज दिया। उस टाइप हुए कागज में बालयोगी ने एक रूलिंग दी थी यानी कुछ संदेश था, जिसमें कांग्रेस सांसद गिरधर गोमांग को अपने विवेक के आधार पर वोट देने की अनुमति दी गई थी। दरअसल, गोमांग फरवरी में ही ओडिशा के मुख्यमंत्री बन गए थे, लेकिन उन्होंने तबतक अपनी लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया था, वे सदन के सदस्य थे और उन्हें वोट देने का हक प्राप्त था। हालांकि संसद में वो वोट देंगे या नहीं, ये स्पीकर बालयोगी को तय करना था।
भारत के राजनीतिक इतिहास में पहली बार किसी मुख्यमंत्री ने अविश्वास प्रस्ताव के लिए संसद में वोटिंग की थी। उन्होंने अपना वोट अटल बिहारी सरकार के खिलाफ दे दिया था। इलेक्ट्रॉनिक स्कोर बोर्ड पर अटल सरकार के पक्ष में 269 और विपक्ष में 270 मत दिखाई दिए थे, जो चौंकाने वाले थे। नियम तो नियम होता है और इस तरह स्पीकर ने तब अपने विशेष अधिकार का इस्तेमाल किया और एक वोट से अटल सरकार गिर गई थी। ये एक उदाहरण स्पीकर पद की अहमियत बताने के लिए काफी है।
स्पीकर की क्या होती है जिम्मेदारी
स्पीकर का मुख्य काम सदन को नियम और कानून से चलाना है। संसद सदस्यों की शक्तियों और विशेषाधिकारों की रक्षा करने की जिम्मेदारी स्पीकर की होती है। संसद से जुड़े किसी भी मामले में इनका फैसला ही सर्वोच्च होता है।
स्पीकर ही संसद सदस्यों की बैठक में चर्चा का एजेंडा तय करता है। स्पीकर सांसदों के अनियंत्रित व्यवहार के लिए उन्हें दंडित भी करता है। इसके अलावा अविश्वास प्रस्ताव और निंदा प्रस्ताव की अनुमति भी स्पीकर ही देता है।
संसद में किसी बिल या अहम मुद्दों पर कौन सदस्य वोट कर सकता है कौन नहीं। सदन कब चलेगा और कब स्थगित करना है। कानूनी रूप से ये सभी फैसला लोकसभा स्पीकर ही तय करते हैं।
किसी सांसद को एक दल से दूसरे दल में जाने से रोकने के लिए राजीव गांधी सरकार 1985 में दल-बदल कानून लेकर आई। दलबदल कानून के तहत स्पीकर को काफी ज्यादा शक्तियां प्राप्त हैं।
दलबदल कानून में स्पीकर की भूमिका अहम होती है। स्पीकर अपने विवेक से दल बदलने वाले सांसद को चाहे तो अयोग्य घोषित कर सकता है। दलबदल कानून में स्पीकर के फैसले को बदलने का सुप्रीम कोर्ट के पास भी सीमित अधिकार है।
स्पीकर का मुख्य काम सरकार के हितों की रक्षा करना है। स्पीकर से अपेक्षा की जाती है कि वो सरकार के समर्थन में हो। अगर वह सरकार से असहमत हो जाए तो समस्याएं खड़ी हो सकती हैं।