सुलभ शौचालय ने स्वच्छता अभियान की बदल दी तस्वीर, कहां से आया कॉन्सेप्ट, दुनिया में कैसे मिली पहचान? जानें सबकुछ
सुलभ इंटरनेशनल का देश के स्वच्छता अभियान में काफी योगदान रहा है।1970 से बिंदेश्वर पाठक सुलभ इंटरनेशनल के जरिए स्वच्छता अभियान में जुटे रहे। उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित भी किया जा चुका है।
नई दिल्ली : जब आप दुनिया में कुछ अलग कर दिखाना चाहते हैं तो समझ लीजिए कि आपने एक मुश्किल रास्ता चुन लिया है। ऐसा ही मुश्किल रास्ता चुना था सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक ने। कल दिल्ली स्थित सुलभ इंटरनेशनल के हेड ऑफिस में स्वतंत्रता दिवस कार्यक्रम के बाद अचानक उनकी तबीयत बिगड़ गई और उन्हें दिल्ली स्थित एम्स में भर्ती कराया गया। जहां इलाज के दौरान उनकी मौत हो गई। वे 80 साल के थे। इस लेख में यह जानने की कोशिश करेंगे कि सुलभ शौचालय का कॉन्सेप्ट कैसे आया और दुनिया में उसे कैसे पहचान मिली साथ ही इस दौरान बिंदेश्वर पाठक को किस तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा।
सुलभ शौचालय का कॉन्सेप्ट
दरअसल, पढ़ाई पूरी करने के बाद बिंदेश्वर पाठक जब भंगी मुक्ति (मैला ढोनेवालों की मुक्ति) प्रकोष्ठ में काम कर रहे थे तो उसी दौरान इस बात पर विचार किया जाने लगा कि मैला ढोने की प्रथा खत्म करने के लिए कुछ ऐसी तकनीक अमल में लाई जा सके जिससे कम खर्च पर टॉयलेट बनाए जा सकें। बिंदेश्वर पाठक ने सुरक्षित और सस्ती शौचालय तकनीक डेवलप करने का काम शुरू कर दिया और दो गड्ढे वाले फ्लाश टॉयलेट बनाया। यह तकनीक काफी सस्ती थी और एक बड़ी समस्या का समाधान इसमें नजर आने लगा। इसे प्रयोग के तौर पर बिहार के आरा और पटना शहर में आजमाया गया और खुले में शौच और मैला ढोने की समस्या खत्म करने की एक मुहिम शुरू हुई। बिंदेश्वर पाठक ने 1970 में सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना की। यह संगठन मानवाधिकार समेत पर्यावरण, स्वच्छता और शिक्षा के क्षेत्र में काम करता है।
बचपन की घटनाओं से मिली प्रेरणा
बिंदेश्वर पाठक ऐसे घर में पले-बढ़े जहां कमरे तो 9 थे लेकिन एक भी शौचालय नहीं था। शौच के लिए घर से बाहर जाना होता था। घर की महिलाएं दिन में शौच के लिए बाहर नहीं जा सकती थीं। लिहाजा इन्हें कई तरह की बीमारियों का सामना करना पड़ता था। इसके साथ ही बचपन की कुछ ऐसी घटना भी थी जिसने उन्हें इस क्षेत्र में काम करने के लिए प्रेरित किया। खुद बिंदेश्वर पाठक बता चुके हैं कि बचपन में उनके घर पर एक महिला बांस का बना सूप, डगरा और चलनी देने के लिए आती थी। जब वह लौटती तो उनकी दादी जमीन पर पानी छिड़कती थी। यह देखकर बिंदेश्वर पाठक के मन में आश्चर्य होता था कि घर में इतने लोग आते हैं, दादी किसी के लिए ऐसा नहीं करती लेकिन इनके आने पर ऐसा क्यों करती है। लोग बताते थे कि वह महिला अछूत थी इसलिए उसके जाने के बाद जगह को पवित्र करने के लिए पानी छिड़का जाता है। इसके बाद बिंदेश्वर पाठक कभी-कभी उस महिला को छूकर देखते थे कि उनके शरीर और रंग में कुछ बदलाव होता है या नहीं। लेकिन एक दिन उनकी दादी ने उस महिला को छूते हुए देख लिया। फिर बिंदेश्वर पाठक को पवित्र करने के लिए गाय का गोबर खिलाया गया । इस घटना ने उन्हें अंदर से झकझोर कर रख दिया था।
भंगी मुक्ति प्रकोष्ठ में किया काम
1968 में ग्रैजुएशन करने के बाद इन्होंने कुछ दिनों तक पढ़ाने का काम किया और फिर बिहार गांधी शताब्दी समारोह समिति में एक कार्यकर्ता के तौर पर शामिल हुए गए। यहां पर वह भंगी मुक्ति (मैला ढोनेवालों की मुक्ति) प्रकोष्ठ में काम करने लगे। एक उच्च जाति के लड़के का शौचालय के क्षेत्र में इस तरह काम करना आसान नहीं था। लेकिन बिंदेश्वर पाठक अपने इरादे से पीछे नहीं हटे। अपने काम के दौरान दौरान उन्होंने मैला ढोनेवालों की समस्या को समझा और उसे जाना। उन्होंने खुले में शौच और मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने का बीड़ा उठाया। सुलभ शौचालय ने देश भर में शौचालय का निर्माण कराया। इसके शौचालय कम लागत वाले और इको फ्रैंडली माने जाते हैं।
क्या-क्या मुसीबतें आईं
यूं तो जब लीक से कुछ हटकर आप काम करते हैं तो मुसीबतों का आना स्वाभाविक है। बिंदेश्वर पाठक के साथ सबसे बड़ी दिक्कतें काम के शुरुआती दिनों में अपने ही परिवार की ओर से आई। बिंदेश्वर पाठक के पिता जी इस काम से बेहद नाराज हुए। परिवार के अन्य लोग भी खफा हो गए। बिंदेश्वर पाठक के ससुर तो इतने नाराज हुए कि उन्होंने साफ तौर पर कहा-'मैं आपका चेहरा भी नहीं देखना चाहता हूं। आपने मेरी बेटी का जीवन खराब कर दिया है। लोग पूछते हैं कि दामाद क्या करते हैं ? अब मैं उन्हें क्या बताऊं?' इस पर बिंदेश्वर पाठक ने कहा कि मुझे गांधी जी का सपना पूरा करना है। और वे अपने मुहिम में जुटे रहे। इसी का नतीजा है कि सुलभ इंटरनेशनल ने देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अपनी पहचान स्थापित की।
कैसे बदली तस्वीर
देश में कम लागत में शौचालय निर्माण को लेकर डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने काफी रिसर्च किया। उन्होंने सबसे पहले 1968 में डिस्पोजल कम्पोस्ट शौचालय बनाया जो कम खर्च में घर के आसपास मिलनेवाली सामग्री से बनाया जा सकता है। बाद इस तकनीक की काफी तारीफ हुई। इसे दुनिया की बेहतरीन तकनीकों में एक माना गया। सुलभ इंटरनेशनल ने देशभर में शौचालय और स्नानगार का निर्माण कराया । रेलवे स्टेशन, मेट्रो स्टेशन और अन्य सार्वजनिक स्थलों पर आपको सुलभ शौचालय नजर आ जाएंगे। देशभर में सुलभ शौचालय के 8500 शौचालय और स्नानघर हैं। यहां शौचालय के लिए 5 रुपए और नहाने के लिए 10 रुपये देने होते हैं। कई जगहों पर सामुदायिक इस्तेमाल कि लिए इसे मुफ्त भी रखा गया है। पीएम मोदी के स्वच्छता अभियान में सुलभ इंटरनेशनल का बड़ा योगदान रहा। खुले में शौच से मुक्ति अभियान के तहत बड़े पैमाने पर कम लागत वाले शौचालय का निर्माण कराया गया।
विदेशों में पहचान
सुलभ इंटरनेशनल ने देश के साथ-साथ विदेशों में भी कई प्रोजेक्ट को पूरा किया और अपनी पहचान स्थापित की। 2011 में इस संस्था ने अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना के इस्तेमाल के लिए एक खास तरह के शौचालय की योजना बनाई। इससे पहले भी काबुल के कई प्रोजेक्ट में सुलभ इंटरनेशनल ने शौचालय का निर्माण कराया था। अमेरिकी सेना ने खुद सुलभ इंटरनेशनल से संपर्क कर खास तरह के शौचालय निर्माण की पेशकश की थी।
टॉयलेट म्यूजियम की तारीफ, मिले कई अवॉर्ड
बिंदेश्वर पाठक द्वारा स्थापित टॉयलेट म्यूजियम को टाइम मैगजीन ने दुनिया के 10 सबसे अनूठे म्यूजियम में स्थान दिया है। बिंदेश्वर पाठक को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। 1999 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। वर्ष 2003 में दुनिया के टॉप 500 सामाजिक कार्य करनेवाले लोगों की लिस्ट भी उनका नाम शामिल था। एनर्जी ग्लोब समेत कई पुरस्कारों से उन्हें सम्मानित किया गया।