40 साल बाद भी दलितों के दर्द का सबूत देती है सत्यजीत रे की 'सद्गति'
आज से 40 साल पहले दूरदर्शन के उस ब्लैक एंड व्हाइट 'ईडियट बॉक्स' में प्रेमचंद की लिखी कहानी 'संद्गति' पर आधारित इसी नाम के टीवी शो को सत्यजीत रे ने दिखाया था।
मौजूदा वक्त में जहां वेब सीरीज की बहार है। मनोरंजन जगत के बीच कहानियों का एक सैलाब आया है। लेखक इस आशा में अपनी कहानियों को उकेरता है कि उसकी कहानियां लोगों का मनोरंजन करेंगी। सिर्फ मनोरंजन मात्र ध्येय की लालसा को अगर नजरअंदाज़ कर दें तो यह सवाल लाजमी हो जाता है कि कहानियां जो साहित्य का हिस्सा हैं, वह स-हित के लिए किस तरह अपना योगदान दे रही हैं? मौजूदा वक्त को ध्यान में रख कर इस सवाल का उत्तर ढूंढा जाए तो यह न के बराबर है। मगर हमें अपना इतिहास उलट के देखना चाहिए, अपने मीठे माज़ी को फिर से सुनना चाहिए, जो आज के दौर के स्पेशल इफेक्ट्स से दूर रहते हुए वे उस कहानी को कह देते जो खालिस हिंदी की है। हमारे दलितों की है, हमारे अपने समाज की है।
आज से 40 साल पहले दूरदर्शन के उस ब्लैक एंड व्हाइट 'ईडियट बॉक्स' में प्रेमचंद की लिखी कहानी 'संद्गति' पर आधारित इसी नाम के टीवी शो को दिखाया गया था। रुपहले पर्दे के कैनवाल के प्रतिनिधी हस्ताक्षर सत्यजीत रे जिन्होंने वैश्विक स्तर पर भारत का नाम रौशन किया है... उन्होंने प्रेमचंद की इस कहानी को सीमित समय यानी फिल्मों से परे जा कर टीवी के दर्शकों के लिए बनाई।
'सद्गति' की कहानी आज के दौर में भी उतनी ही सार्थक लगती हैं, जितनी प्रेमचंद के मौजूदा वक्त में थी। आज भी दलित महिलाओं पर हमले, सामूहिक बलात्कार, लिंचिंग जैसे प्रकरण सामने आते रहते हैं, वहां पर 'सद्गति' की कहानी स्वत: सार्थक हो जाती है। दलितों के प्रति हीन भावनाओं को विरासत की तरह कायम किए हुए इस समाज के लिए 1935 में, बाबासाहेब अम्बेडकर ने जाति हिंसा की निंदा करते हुए कहा था, "मनुष्य की मनुष्य के प्रति अमानवीयता"।
40 साल पहले जब इसे टीवी के दर्शकों के लिए बनाया गया तो लोगों ने 'दुखिया' के किरदार को ओम पुरी की कद-काठी से आंका। श्याम सूरत वाले चेहरे में दो जून के अनाज की आशा और सामाजिक विरूपता की वजह से कम उम्र में ही चेहरे की झुर्रियों से यौवन का द्वन्द्व, स्मिता पाटिल के चेहरे से 'झुरिया' का कान्तिहीन चेहरा समाज के प्रति उसके खीझ को उजागर करता है।
सत्यजीत रे की 'सद्गति' और प्रेमचंद की 'सद्गति' में अंतर मात्र कहानी के बयान किए जाने वाले अंदाज़ में है। प्रेमचंद के पाठकों के लिए चुनौती यह थी कि बतौर लेखक वह अपने पाठकों से अपनी कहानी के तनाव को महसूस कराते थे। एक पाठक उन संवेदनाओं को लिखित तौर पर महसूस करता था। मगर संवेदनाएं दृश्यात्मक हों तो वह दर्शकों/पाठकों के जेहन ज्यादा वक्त तक ताजा रहती हैं। सत्यजीत रे बस 'दुखी' की पीड़ाओं का अंचल मात्र सिनेमाई दृश्यों के जरिए बढ़ा दिया है।