Maidaan Review: 'मैदान' में अजय देवगन ने की कमाल की एक्टिंग, जोश-जज्बे से भरी फिल्म देख रोमांचित हो उठेंगे
'मैदान' फिल्म रिव्यू: अजय देवगन, प्रियामणि, गजराज राव स्टारर फिल्म 'मैदान' फुटबॉल कोच सैयद अब्दुल रहीम पर आधारित है, जिनके नेतृत्व में भारतीय फुटबॉल टीम ने 1951 और 1962 में एशियाई खेल जीते थे। इस फिल्म की कहानी कैसी है, जानने के लिए पढ़े हमारा पूरा
अजय देवगन की फिल्म 'मैदान' की घोषणा पहली बार 2019 में की गई थी। पहले पोस्टर में अजय को नीली शर्ट-काली पैंट में हाथ में ऑफिस बैग के साथ दिखाया गया था, जिसने फैंस की उत्सुकता बढ़ा दी थी। अजय की इस फिल्म का फैंस बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। फिल्म 11 अप्रैल को सिनेमाघरों में रिलीज होने के लिए तैयार है। ऐसे में अजय कि फिल्म देखने से पहले आप हमारा ये रिव्यू जरूर पढ़ ले।
फिल्म की शुरूआत
फिल्म की शुरुआत 1952 के एक मैच से होती है जहां भारत 1-12 से मैच हार जाता है। जिसके बाद भारतीय फुटबॉल महासंघ (पश्चिम बंगाल में स्थापित) के एक चैंबर ने हार के लिए तत्कालीन मुख्य कोच एस.ए. रहीम से पूछताछ की। फिल्म की शुरूआत से ही आप अजय देवगन को एक आदर्श फुटबॉल कोच के रुप में प्रतिनिधित्व करते हुए देखते हैं और अपने खिलाड़ियों को खेल के प्रति उनके प्यार का एहसास कराते हैं। उनकी हिम्मत और जज्बे पर बनी फिल्म 'मैदान' काफी धमाकेदार है। वहीं फिल्म में फुटबॉल के साथ-साथ पॉलिटिक्स, रोमांच और इमोशन्स भी हैं। फिल्म में प्रियामणि अजय देवगन की वाइफ के किरदार में काफी बेहतरीन दिखती हैं। वहीं गजराज राव की एक्टिंग भी इस फिल्म में ऐसी है कि आप उनके इस किरदार से नफरत और अभिनेता से प्यार करने लगेंगे।
कहानी
अजय देवगन की मैदान की शुरुआत फुटबॉल कोच द्वारा फेडरेशन के हस्तक्षेप के बिना अपने खिलाड़ियों को चुनने के इच्छुक से होती है। उनके साथ एक सहायक और एक सहायक अध्यक्ष भी शामिल हैं। फिल्म की शुरुआत में ही, निर्देशक इसके किरदारों का शार्ट इंट्रो देते हैं, जैसे कि प्रियामणि को वह एक आदर्श पत्नी के रुप में दिखाते हैं, वहीं गजराज राव एक क्रूर खेल पत्रकार के रूप में, जिसका फुटबॉल के प्रति बस बंगाल के रेंज तक ही प्यार होता है । बाद में आप देखेंगे कि अजय देश के विभिन्न हिस्सों से अपनी सर्वश्रेष्ठ टीम चुनते हैं और उन्हें सर्वश्रेष्ठ बनने के लिए ट्रेनिंग देते हैं। इस बीच, उन्हें भारतीय फुटबॉल महासंघ के अंदर कुछ क्षेत्रवादियों से भी निपटना पड़ता है। लेकिन रहीम, जो केवल देश का नाम रोशन करना चाहता है, अपनी नैतिकता पर अड़ा रहता है। उनकी रणनीतियों से युवा भारतीय टीम को 1952 और 1956 के ओलंपिक में अच्छा प्रदर्शन करने में मदद मिली, लेकिन टीम फाइनल तक पहुंचने में असफल रही। यह फिल्म का सबसे ज्यादा दिल तोड़ देने वाला हिस्सा होता है। जिसे देख आपको ये सीख मिलती हैं कि एक कोच और खिलाड़ियों को किन-किन चीजों से निपटना पड़ता है। आख़िरकार, सामना की जाने वाली हर लड़ाई खेल के मैदान में नहीं होती। इंटरवल से ठीक पहले दिल टूटने के बाद, एस.ए. रहीम और उनका परिवार सभी बाधाओं से लड़ने के लिए एक साथ आते हैं और फिर भी देश और विश्व मानचित्र पर इसकी पहचान के लिए प्रशंसा जीतते हैं। यह फिल्म मुख्य रूप से रहीम के जीवन और संघर्षों से संबंधित है, जिसमें 16-20 युवा लड़के भी शामिल हैं, जो उन्हें भारतीय फुटबॉल का स्वर्ण युग लाने में मदद करते हैं।
डायरेक्शन
'बधाई' हो जैसी सफल फिल्म बनाने वाले अमित शर्मा ने फिल्म का निर्देशन किया है। पहले भाग में, उन्होंने कहानी को धीमा रखा है और प्रत्येक दृश्य को उन्होंने बेहद बारिकी से दिखाया है। लेकिन फिल्म के दूसरे भाग को, खासकर क्लाइमेक्स सीक्वेंस को उन्होंने बेहद शानदार बनाया है। फुटबॉल मैच के सीक्वेंस में कैमरा वर्क शानदार है, ऐसा लगेगा मानो आप कोई लाइव मैच देख रहे हों। इसे वास्तविक और विंटेज बनाए रखने के लिए फिल्म निर्माता और छायाकार तुषार कांति रे और अंशुमान सिंह को भी श्रेय दिया जाना चाहिए। बंगाल की सड़कें, फर्नीचर, घोड़ा गाड़ी, वेशभूषा, रूप और सेट, सब कुछ आपको विश्वास दिलाता है कि यह सीन 1960 के दशक का है, 2024 का नहीं। वहीं मैदान के कुछ सीन आपको शाहरुख खान की चक दे इंडिया की याद दिला सकती हैं। फाइनल से पहले के भाषण की तरह, एक कोच क्षेत्रवादी विचारधाराओं को मिटाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन अमित शर्मा बदलाव लाने में अपना समय लगाते हैं। मैदान के डायलॉग्स भी ऑन प्वाइंट हैं। रितेश शाह को उनके लेखन के लिए श्रेय दिया जाना चाहिए। और जब आपके पास अजय देवगन जैसा अभिनेता हो तो संवाद अदायगी से प्रभावित न होना मुश्किल है।
एक्टिंग
परफॉरमेंस की बात करें तो मैदान में ज्यादातर हर सीन में अजय देवगन हैं। और अभिनेता ने वास्तव में सैयद अब्दुल रहीम के रोल के साथ उन्होंने पूरा न्याय किया है। पर्दे पर अजय को देखते हुए आपको लगेगा कि अगर रहीम साहब को कभी सामने से देखने का मौका मिलता, तो वो ऐसे ही होते। फिल्म में उनका जुनून, उनका दर्द, उनका हौसला-हिम्मत, सब आपको अपने अंदर महसूस होता है। वहीं उनकी पत्नी के रोल में प्रियामणि ने भी अच्छा काम किया है। वहीं खेल पत्रकार की भूमिका में गजराज राव ने भी अच्छा काम किया है। फिल्म में उनका किरदार इतना खराब है कि आपको उसे देखकर उससे नफरत हो जाएगी, लेकिन उनकी एक्टिंग से आप प्यार कर बैठेंगे। वहीं फुटबॉल टीम के खिलाड़ियों के रोल में चैतन्य शर्मा, अमर्त्य रे, दविंदर गिल, सुशांत वेदांडे, तेजस रविशंकर, ऋषभ जोशी, अमनदीप ठाकुर, मधुर मित्तल, मननदीप सिंह संग सभी एक्टर्स ने भी कमाल का प्रदर्शन किया है। अपने खेल से वो हर सीन को जोश से भरा बनाते हैं।
म्यूजिक
जब आपके पास ए.आर. हो तो फिर किस बात की कमा है। फिल्म में ए आर रहमान का म्यूजिक भी कमाल का है। 'मिर्जा' से लेकर 'दिल नहीं तोड़ेंगे' तक सभी गाने स्क्रीनप्ले में परफेक्ट फिट होते हैं। फिल्म का एक और धमाकेदार गाना 'टीम इंडिया हैं हम' फिल्म को परफेक्ट गति देता है। रंगा रंगा ठीक है लेकिन मैदान गान वह भी रहमान की आवाज में निर्माताओं का विजयी लक्ष्य है। गाने और अजय देवगन की मौजूदगी के कारण क्लाइमेक्स सीन ऊंचा हो जाता है। हालांकि, फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर भी काफी बढ़िया है। लंबे समय से इस फिल्म का इंतजार कर रहे दर्शक इस फिल्म को देखकर जरूर खुश हो जाएंगे और कहेंगे कि 'देर आए, दुरुस्त आए'।