जज्बा
Aishwarya Rai Bachchan and Irrfan Khan starrer Jazbaa movie review is here. Read it full.
संजय गुप्ता कमर्शियल सिनेमा के उन निर्देशकों में से एक हैं जो गंभीर एक्शन फिल्मों में तकनीक और स्टाइल से ज्यादा फिल्म की कहानी पर ध्यान देते हैं। इस बार संजय गुप्ता की फिल्म जज्बा में खास बात ये है कि इसकी कहानी मजबूत है वहीं तकनीक और निर्देशक का सिगनेचर स्टाइल उसमें सहायक भूमिका निभाते हैं।
कहानी है अनुराधा वर्मा (ऐश्वर्या राय बच्चन) की जो पेशे से वकील है और उसका ट्रेक रिकार्ड उठाकर देखें तो वो 100 प्रतिशत सफल रहा है। उसकी जिंदगी में उथल-पुथल तब होती है जब उसकी बेटी सनाया को किडनैप कर लिया जाता है और किडनैपर फिरौती की जगह जेल में कैद एक बलात्कारी मियाज शेख (चंदन रॉय सनयल) का केस लड़ने की मांग करता है। मजबूर होकर अनुराधा इस केस को अपने हाथों में ले लेती है और इसमें उसकी मदद करता है एक निष्कासित पुलिस अफसर योहान (इरफान खान) जिसका दिल इस वकील के लिए धड़कता भी है।
अनुराधा और योहान बलात्कार का शिकार हो चुकी लड़की की मां (शबाना आजमी) से मिलते हैं जिनसे उन्हें पता चलता है कि कितनी बर्बरता से उस लड़की का बलात्कार हुआ है। इससे अनुराधा को एहसास होता है कि वो एक जानवर के पक्ष में केस लड़ रही है लेकिन वहीं उसकी ममता उसे असमंजस में डाल देती है। तो क्या वो इस केस को लड़ेगी और क्या होगा उसकी बेटी का जो अब तक किडनैप है? जानने के लिए देखिए जज्बा।
अगर कहे कि ऐश्वर्या का फिल्म में बेहतरीन कमबैक है तो ये सिर्फ उनके फैंस के लिए एक दिलासा होगा। 5 साल बाद वापसी कर रही ऐश्वर्या के लिए ये जिक्र करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि उन पर सबकी निगाहें टिकी हुई थी। फिल्म में संजय गुप्ता का सिगनेचर स्टाइल जिसमें खूब डायलॉगबाजी है, कई मंझे हुए कलाकारों के अभिनय को कमजोर करता हैं। न चाहते हुए भी ऐश कहीं-कहीं इसी की शिकार होती हैं, लेकिन फिल्म के अंत तक वो संयम पाती हैं ठीक वैसे ही जैसे पानी से दूर एक मछली दोबारा पानी में आने से जीवन पाती है।
संजय गुप्ता की फिल्म भी एक रुकी हुई ट्रेन की तरह है जिसे इंटर्वल के बाद ही रफ्तार मिलती है। मेलोड्रामा का ओवरडोड फिल्म के पहले हॉफ में आपके सब्र का इम्तेहान लेता है। लेकिन जल्द ही आपके ध्यान को ये खींचता है और एक डोर की तरह आपको बांध कर रखता है। इस पूरी प्रक्रिया को देख कभी-कभी ऐसा लगता है कि फिल्म से ऐश्वर्या ही नहीं बल्कि निर्देशक साहब की भी वापसी हो रही है जो शुरुआत में तो समय लेते हैं और कई ऐसी गलतियां करते हैं जो नागवारा है, लेकिन एक बार सेट होने के बाद फिल्म को उसके अंजाम तक पहुंचा कर ही दम लेते हैं।
धीमे-धीमे फिल्म पर उनकी पकड़ मजबूत होती है। मेलोड्रामा और बुरे डायलॉग्स का ओवरडोड कहीं पीछे छूट जाता है और लगता है कि फिल्म की एक नई शुरुआत हुई है। फिल्म का सस्पेंस इसमें बड़ा रोल अदा करता है जो आखिर में ही साझा होता है। इसका आप पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि थोड़े समय के लिए आप भी शेरलॉक होम्स की तरह अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगते है। शक की सुई एक नेता (जैकी श्रॉफ) और उसके नशे में धुत बेटे (सिद्धांथ कपूर) पर भी जाती है, लेकिन यहीं पर संजय हमारी सोच को मात देते हैं।
संजय ये सब कुछ एक मां के नजरिए से दिखाते है जो एक तरफ तो सख्त है और दूसरी तरफ बिल्कुल निर्मल। इसी के साथ सभी किरदारों के अपने-अपने रंग है वहीं निर्देशक के मुंबई का रंग भी आम नहीं है। संजय गुप्ता और कमलेश पांडे के वन-लाइनर यूं तो फीके पड़ते लेकिन इरफान की जुबां से निकलते ही इनमें चार चांद लग जाते हैं। अभिनय के मामले में भी इरफान ही सबसे आगे है जो बोझिल सीन में जान डालते हैं। एक सख्त और शायर पुलिसवाले के किरदार में इरफान आपको खूब पसंद आएंगे।
जैसा की पहले कहा गया, ऐश्वर्या राय शुरुआत में समय लेती है लेकिन फिल्म के अंत तक वो अपनी छाप छोड़ती है। कभी आक्रोश तो कभी दर्द, दोनों ही भाव उनकी आंखो में साफ झलकते हैं।
चंदन को देख आप उनसे नफरत कर बैंठेगे और ये उनके लिए किसी जीत से कम नहीं है। शबाना आजमी का किरदार जहां आपको चकित करता है वहीं उनकी अदाकारी अव्वल दर्जे की। फिल्म में दो ही गीतों को रखा गया है जो की सही कदम है। कुल मिलाकर फिल्म बुरी नहीं है लेकिन बेहतरीन भी नहीं है। इरफान खान की अदाकारी और फिल्म में सस्पेंस के लिए जज्बा एक बार जरूर देखी जा सकती है।