गब्बर इज़ बैक
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क्या है कहानी- करप्शन के खिलाफ लड़ाई के लिए आदित्य/गब्बर (अक्षय कुमार) खड़ा होता है। वो शुरुआत करता है 10 भ्रष्ट तहसीलदारों को अगवाह करके और उनमें से सबसे बेईमान को वो मुंबई के एक चौराहे पर फांसी की सजा देता। मकसद साफ है कि अगर कोई रिश्वत लेते हुए भी पकड़ा गया तो गब्बर उसे सजा देगा। देखते ही देखते वो कुछ लोगों का हीरो बन जाता है तो कुछ की ऑखों का कांटा। उन हीं भ्रष्ट लोगों में शामिल है एक बिल्डर (सुमन तलवार) जो आदित्य को अपने बेटे की मौत का जिम्मेदार मान बैठता है और उसकी जान का प्यासा हो जाता है। इसी बीच पता चलता है कि इस बिल्डर और आदित्य की पांच साल पुरानी रंजिश है।
वो रंजिश किस वजह से, आखिर आदित्य क्यों बनता है गब्बर, और क्या वो देश को करप्शन-फ्री बना पाएगा। जानने के लिए देखिए गब्बर इज बैक।
क्या है खास-
हालांकि की अक्षय कुमार का किरदार गब्बर है लेकिन उसके इरादे नेक है। वो छुपकर काम करता है और लोगों को उसके वजूद की कानों कान खबर नहीं होती। कभी-कभी हम गब्बर की तुलना हॉलिवुड के सुपरहीरो से भी करने लगते है, जो किसी नकाब के पीछे रहकर गलत के खिलाफ आवाज़ उठाता है तो कभी बुरी शक्तियों को अपने बल के जरिए जवाब देता है। आखिरी के कुछ द्रश्यों में तो गब्बर में भारत के स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह की भी परछाई नज़र आती है। ये सब कुछ काफी अटपटा भी है लेकिन फिर भी मज़ेदार है।
गब्बर इज बैक 2002 में आई निर्देशक ए आर मुरूगोदौस की तमिल फिल्म 'रमन्ना' की रीमेक है और 12 वर्षों बाद भी जब निर्देशक क्रिस के नजरिये से इसे हम देखते है तो इसमें ज्याद फर्क नहीं ढूंढ पाते। इसलिए नहीं क्योंकि 12 वर्षों में काफी कुछ बदल चुका है और वो बदलाव इस फिल्म में दिखने चाहिए, बल्कि इसलिए क्योंकि आज भी सरकारी तंत्र भ्रष्ट है। क्रिस भी इस बात को समझते है और अक्षय कुमार के जरिए खूब मेलोड्रॉमा के साथ इस मुद्दे को हमारे सामने परोसते है ।
कुछ और बात न करके सिर्फ अक्षय कुमार की बात करना यहां पर ज़रूरी है क्योंकि वो फिल्म को काफी हद तक बचाते है। घूंसखोरी और हर जगह फैला करप्शन इस फिल्म के असल मु्द्दे हैं लेकिन इसमें नया पन नहीं है। अक्षय कुमार इस खामी को पूरा करते है अपने कमाल के अभिनय से। अगर अक्षय भाषणबाज़ी भी कर रहे है तो अपने संयम को बरकरार रखते हुए अपनी डॉयलॉग डेलिवरी से उसमें जान डालते है। किसी बच्चे के तरह आप उन्हें सुनते है और प्रभावित होते है। वहीं उनका एक्शन भी आपको उनके खिलाड़ी के दिनों में वापस ले जाता है।
क्या मूड खराब करता है
ये तो मानना पड़ेगा कि अगर इस फिल्म में अक्षय कुमार न होते तो कई मायनें में ये फिल्म गिरती हुई नज़र आ रही थी। फिल्म का स्क्रीनप्ले कॉफी कमज़ोर है। जो ट्विस्ट और टर्नस फिल्म में होते है वो ज्यादा प्रभावित नहीं करते। बस आपका ध्यान जबरदस्ती खींचने की कोशिश करते है।
अक्षय के अलावा किसी का भी अभिनय फिल्म में कारगार साबित नहीं होता। सुनील ग्रोवर एक कॉस्टेबल के किरदार में जरूर अच्छी कोशिश करते है लेकिन बुरी स्क्रिप्ट की वजह से वो छांप नहीं छो़ड़ पाते। सुमन तलवार 90s के विलेन की तरह पेश आते है और एक प्रभाव जो उनका होना चाहिए वो यहां नदारद होता है।
जैदीप आहल्वात ने वैसे तो कई फिल्मों में कमाल का अभिनय किया है लेकिन यहां पर सीबीआई अफ्सर की पोशाक में उनको असुविधा होती दिखती है। श्रुति हासन एक वकील है लेकिन पूरी फिल्म में वो शोर-शराबा करने के अलावा और कुछ नहीं करती।
आखिरी राय-
इन सब खामियों के बावजूद गब्बर इज बैक एक प्रासंगिक फिल्म है जो कई बातों को आपके सामने रखती है और सबसे ज्यादा नौजावनों को गलत के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित करती है। आप चुप बैठकर गलत को सही नहीं कर सकते, अक्षय कमाल के लीडर बनकर ये बात आपको सफलतापूर्वक समझाते है।