बंगिस्तान
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फिल्म देखने के बाद आपका मन करेगा कि अपना सिर किसी दीवार से टक्कर मार कर फोड़ लें। निर्देशक करण अंशुमन जो पत्रकार की दुनिया से फिल्मों की दुनिया में कदम रख रहे हैं एक ऐसी फिल्म बनाते हैं जिसका कोई सिर या पैर नहीं है। धार्मिक कट्टरता और आतंकवाद जैसे मुद्दे को ये फिल्म उठाती है लेकिन सिर्फ उसका माखौल बनाने के लिए और कमाल की बात ये है कि आपको उसपर हंसी भी नहीं आती बल्कि अफसोस होता है।
फिल्म की कहानी है हाफिज बिन अली (रितेश देशमुख) और प्रवीण चतुर्वेदी (पुलकित सम्राट) की जो बंगिस्तान नाम के काल्पनिक शहर के दो अलग-अलग भागों में रहते हैं। अपने धर्म की वो इतनी इज्जत करते हैं कि उसके नाम पर उनके गुरु जब उन्हें एक बम ब्लास्ट को अंजाम देने के लिए भी कहते हैं तो वो आसानी से बहल जाते है। मिशन को अपने मुकाम तक पहुंचाना उनकी जिंदगी का अहम हिस्सा बन जाता है और वो चल पड़ते है पोलैंड की तरफ जहां उन्हें ये कारनामा करना है।
'हिंदु' प्रवीण बन जाता है मुस्लिम अल्लाह रक्खा खान और 'मुस्लिम' हाफिज बन जाता है ईश्वर चंद्र। जैसे-तैसे इन दोनों का एक फ्लैट में रहने का इंतजाम हो जाता है और एक बारटेंडर रोसी (जैकलीन फर्नानडिज) की दोस्ती भी इन्हें नसीब हो जाती है।
आपको फिल्म के शुरुआती 10 मिनटों से अंदाजा हो जाता है कि फिल्म कहीं और नहीं बल्कि खाई में गिरने वाली है। ये समझ पाना मुश्किल है कि इतने गंभीर मुद्दे को ऐसी घिसी पिटी कॉमेडी के साथ कोई कैसे पेश कर सकता है।
आप सोचते है कि क्या वाकई में फिल्म की कहानी या इसकी पटकथा के ऊपर कोई मेहनत हुई है। कुछ बातों पर कटाक्ष मारती हुई ये फिल्म कोशिश करती है कि आपको हंसाए लेकिन उसमें ये नाकाम रहती है। कॉमेडी की जगह ये फिल्म कई गलतियों को गहरा करती है। फिल्म में ड्रामा जबरदस्ती लाया गया है, विदेशी किरदार कार्टूनी लगते हैं और फिल्म का कलाइमेक्स काफी आम है जिसकी उम्मीद आप ऐसी किसी भी फिल्म के लिए पहले ही कर लेते है।
हां, थोड़ी सीन्स में फिल्म आपको हंसने का मौका देती है जैसे की एक बम बनाने वाले चाइनीज की टूटी-फूंटी अंग्रेजी और कुछ डायलॉग्स जो कॉमेडी लिखने वाले लेखक की प्रतिभा साबित करते हैं।
मगर ये काफी नहीं है। फिल्म को और चोटिल करती है फिल्म में कलाकारों की ओवर एक्टिंग। पुल्कित सम्राट इसमे सबसे ऊपर है। सलमान खान का हैंगोवर उन्हें उतारना पड़ेगा वर्ना उनका भविष्य खतरें मे है।
"सच में बहुत बुरा एक्टर है तू", पुलकित के लिए रितेश द्वारा बोला गया ये डायलाग सबसे ज्यादा हंसी देता है आपको, समझ जाइये क्यों।
रितेश देशमुख फिल्म की बुरे पठकथा की वजह से मात खाते है लेकिन वहीं एक वजह है जिसके लिए आप फिल्म को देखने के लिए एक बार सोच सकते है।
कुमुद मिश्रा और चंदन रॉए कुछ भागों में ठीक है लेकिन वो भी अंत में निराश करते है। जैकलीन कुछ हिस्सों में आपको सुखद एहसास देती है।
अंत में इस फिल्म को देखने की सलाह हम आपको नहीं देते हैं लेकिन फिर भी आपका दिल करें तो अपने रिस्क पर ही इसे देखें।