शैलेंद्र जयंती विशेष: हिंदी सिनेमा का पहला टाइटल ट्रैक 'बरसात में हमसे मिले तुम'
हिंदी फिल्मों के पहले शीर्षक गीत 'बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम' को शैलेंद्र ने ही शब्दों में पिरोया।
सिर्फ पूरब की सतरंगी धनुक ही नहीं आम जीवन की सामान्य जीवनानुभूतियों को शैलेंद्र ने अपने गीतों में कितनी सच्चाई और ईमानदारी से पिरोया। इसी का जिक्र मैं इस खंड में करने की कोशिश कर रहा हूं। साथ ही मैंने इस खंड में शैलेंद्र के आगमन के समय और आगमन से ठीक पहले हिंदी सिनेमा में गीत लेखन के इतिहास का जायजा लेने का भी प्रयास किया है। बीच बीच में हर एक बार की तरह कुछ और बातें भी आ सकती है।
गीतकार शैलेंद्र जयंती विशेष: उट्ठा है तूफान जमाना बदल रहा...
इस बात का तो मैंने पहले ही जिक्र कर दिया है कि शैलेंद्र हिंदी सिनेमा के पहले हिंदी गीतकार हुए। हालांकि उससे पहले भी पूरब की पट्टी से चलकर कुछेक लेखक हिंदी सिनेमा में गीत लेखन में आए और हिंदी का रंग जमाने का हर संभव प्रयास भी किया लेकिन कारण चाहे जो भी रहे हों उनके प्रयास पूरी तरह से आकार नहीं ले पाए। उनमें एक नाम गोपाल सिंह नेपाली का भी था। नागपंचमी फ़िल्म के लिए रचित उनके गीत आज भी गीत लेखन की उनकी प्रतिभा की बानगी दे ही जाते हैं। कवि नरेंद्र शर्मा का नाम भी लिया जा सकता है। लेकिन उनका मन भी अंततः सिने विधा/संसार के बजाए रेडियो की दुनिया में ही रम गया। एक नाम और जिसे सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान भी मिला। वह था कवि प्रदीप का। सम्मान के बावजूद हिंदी सिनेमा उन्हें सफल व सार्थक हिंदी गीतकार के तौर पर पचा नहीं सका। वैसे भी उन्हें उनके गैर फ़िल्मी गीत ए मेरे वतन के लोगों ...के लिए ही ज्यादा प्रसिद्धि भी मिली। सिने गीतकार के लिए जरूरी रेंज का कवि प्रदीप में घोर अभाव दिखा।
कुछेक नाम और लेना चाहूंगा यथाः दीनानाथ/डीएन मधोक और केदार शर्मा। इन दोनों का पूरब की पट्टी से संबंध नहीं था लेकिन गीत लेखन को लेकर सादगी और सहजता के उनके प्रयास जरूर याद किए जा सकते हैं। वैसे दोनों ने गीतकार बनने का कभी गंभीर प्रयास भी नहीं किया किया। राजकपूर के उस्ताद के तौर पर प्रसिद्ध केदार शर्मा ज्यादातर फिल्म निर्माण और निर्देशन में लगे रहे। गीतलेखन तो वे अपनी हाउस मेड फिल्मों के लिए शौकिया तौर पर कर लिया करते थे। कमोबेश मधोक के लिए भी यही बात कही जा सकती है। फिर भी फिल्म तस्वीर, परवाना और रतन के उनके लिखे हुए गीतों को भला कौन भूल सकता है।
शैलेंद्र से पहले के एक और गीतकार का जिक्र कर लेना भी लाजिमी होगा। वो गीतकार थे आरजू लखनवी। महबूब खान की औरत के लिए आरजू लखनवी के लिखे गीतों का जिक्र यहां पर जरूरी है। फिल्मों के लिए पहली बार अख्तरीबाई की आवाज से मौत्तर फिल्म की दो रचनाएं 'वो हंस रहे हैं आह किए जा रहा हूं मैं' और 'जिसने बना दी बांसुरी गीत उसी के गाए जा' अपने समय में काफी मशहूर हुई। ये वहीं अख्तरीबाई थी जिसे संगीत की दुनिया मल्लिका-ए-गजल बेगम अख्तर के तौर पर जानती है। विभाजन के बाद आरजू साहब पाकिस्तान चले गए।
शैलेंद्र के कमोबेश साथ साथ ही कई और शायर व कवि गीत लेखन में आए। जिसमें शकील बदायूंनी, राजा मेंहदी अली खां, बहजाद लखनवी, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफ़ी आजमी, भरत व्यास, राजेंद्र कृष्ण प्रमुख हैं। लेकिन इतनी बडी फेहरिस्त में सिर्फ एक नाम भरत व्यास का ही है जिनका संबंध कुल मिलाकर हिंदी गीत लेखन से रहा। लेकिन जो भी कहे भरत व्यास के प्रयास भी कुछेक मौकों से ज्यादा आगे नहीं निकल पाए। कुछ फिल्मों के लिए अली सरदार जाफरी, खुमार बाराबंकी और मजाज लखनवी ने भी गीत लिखे लेकिन उन्हें सिने गीत लेखन की दुनिया रास नहीं आई। कहें तो उस समय शैलेंद्र अकेले थे जो उर्दू फारसी की विरासत से आए उन तमाम गीतकारों के बीच अपनी हिंदी के लालित्य को बिखरने के लिए प्रयासरत थे। और सिने गीत लेखन का इतिहास इस बात का गवाह है कि वे अपने प्रयास में पूरी तरह से सफल रहे। उन्होंने इस बात का लोहा मनवा कर ही दम लिया कि कोई भी कोई भाषा तंग नहीं होती है। तंग होती है तो आपकी नजर और भाषा के प्रयोग की क्षमता।
जो लोग इस बात का दावा किए फिरते थे कि ठेठ हिंदी शब्दों के सहारे सिने गीत में सौंदर्य पनप ही नहीं सकता। उन्हें न सिर्फ शैलेंद्र की प्रतिभा का कायल होना पडा बल्कि वे यह भी मानने के लिए मजबूर हुए कि हिंदी की बोलियों और उपबोलियों में लोक का ऐसा रस और लालित्य है जिसके सहारे गीतों के भाव सौंदर्य में चार चांद लगाए जा सकते हैं। मेरे हिसाब से हिंदी सिनेमा में गीत लेखन के क्षेत्र में शैलेंद्र वह प्रस्थान विंदु हुए जिनकी प्रेरणा से उर्दू और फारसी की विरासत से आए एक से एक बडे शायरों ने भी हिंदी की बोलियों और उपबोलियों के शब्दों को अपनाकर अपनी गीतमाला को सतरंगी छटा प्रदान की ।
कह सकते हैं फिल्मों का गीत सही मायने में यहीं से लोक की अल्हड़ता और सामासिकता से दो चार हुआ। शैलेंद्र का आगमन जिस समय गीत लेखन के क्षेत्र में हुआ कमर जलालाबादी, राजा मेंहदी अली खां, मजरूह सुल्तानपुरी, और शकील बदायूंनी धूम मचाए हुए थे। नौशाद अली के संगीत निर्देशन में शाहजहां के लिए मजरूह के लिखे गीत 'जब दिल ही टूट गया.... और 'गम दिए मुस्तकिल' उस समय लोगों की जुबान पर चढ़ा हुआ था। राजा मेंहदी अली खां तो बाम्बे टाकीज के साथ काम करते हुए पहले ही ख्याति बटोर चुके थे लेकिन संगीतकार गुलाम हैदर के निर्देशन में उनका लिखा 'गीत वतन की राह पर वतन के नौजवां शहीद हो' से ही उन्हें सही मायने में आम लोगों के दिलों में जगह मिली।
जानकारी के लिए बता दूं कि शहीद सिने संगीत की यात्रा का वह पड़ाव था जिसमें पहली बार पंजाबी ठेका की मधुर और अल्हड़ थाप सुनने को मिली थी। फिल्म 'दर्द' के लिए नौशाद अली के संगीत निर्देशन में शकील बदायूंनी रचित उमा देवी का गाया गीत 'अफसाना लिख रही हूं दिले बेकरार का' भी उस समय संगीत रसिकों के साथ साथ आम श्रोताओं के कानों में रस घोल रहा था। ठीक उसी समय शैलेंद्र के समकालीन कुछेक और गीतकार भी पैर जमाने की जद्दोजहद में थे। ज्यादातर का नाम मैं इस आलेख में पहले ही ले चुका हूं। कुछेक छूट भी गए हैं, जिसके लिए माफी मांगता हूं।
सन 1945 से लेकर 1950 के बीच का समय सिर्फ गीत लेखन में आ रहे बदलाव का ही साक्षी नहीं था बल्कि पटकथा, संगीत, मूल्य और तकनीक के स्तर पर संक्रमण के साथ साथ सार्थक परिवर्तन के दौर से भी गुजर रहा था। या कहें तो जन की पक्षधरता के साथ साथ वृहत्तर सामजिक, सांस्कृतिक और स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों को आत्मसात करने की कोशिश कर रहा था। इन सबमें हिंदी सिनेमा कितना सफल रहा, इस पर तो अलग से बात की जा सकती है। उस समय बाहर की फ़िल्में भी हमारी फिल्मों (हम पर) पर असर डाल रही थी। लेकिन सबसे ज्यादा असर हमारे यहां के निर्माता निर्देशकों पर उस समय इटली में पनपे नव-यथार्थवाद का हुआ। मालूम होना चाहिए कि नव-यथार्थवाद ने ही तो सिनेमा को यथार्थ के धरातल पर उतारा। नव-यथार्थवाद एक ऐसा आंदोलन था जिसने तकनीक के साथ साथ पार्श्व संगीत, कथानक, संपादन और पटकथा व संवाद लेखन के तौर पर नए प्रयोगों का अपनाया। आम इंसान का दुख दर्द भी स्टूडियो की चाहरदीवारी से निकलकर आउटडोर लोकेशन के मैदान में आया। विचारधारा के हिसाब से स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का दौर घोर आदर्श का था, इसलिए उस समय के ज्यादातर निर्माता निर्देशकों पर समाजवादी मूल्यों की भी गहरी छाप देखी गई। साथ ही विभाजन की त्रासदी को भी हिंदी सिनेमा जज्ब करने की कोशिश में लगा हुआ था।
मनोरंजन के साथ साथ समाजवादी, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का सबसे सरल और सहज संयोग उस समय राजकपूर के यहां देखने को मिला। तभी तो राजकपूर हिंदी सिनेमा के पहले और आखिरी शोमैन कहलाने के हकदार हैं। गीत लेखन को लेकर भी कमोबेश ठीक इसी तरह का संयोग शैलेंद्र के यहां भी था। इसलिए तो राजकपूर के अंदर के कलाकार ने अपने जैसे एक और कलाकार को परखने में देर नहीं की। जब राजकपूर ने शैलेंद्र को पहली बार सुना, उस समय आरके बैनर अस्तित्व में नहीं आया था। लेकिन बतौर निर्माता निर्देशक राज की पहली फिल्म 'आग' बनने की प्रक्रिया में थी। इसलिए उस समय राज के साथ न तो संगीतकार शंकर जयकिशन की जोड़ी थी और न था ख्वाजा अहमद अब्बास जैसा पटकथा लेखक। शैलेंद्र ने उस समय राज के प्रस्ताव को ठुकराकर ठीक ही किया क्योंकि 'आग' के लिए संगीतकार रखे गए थे राम गांगुली। और क्या पता राम गांगुली शैलेंद्र की प्रतिभा के साथ शंकर जय किशन जैसा न्याय कर पाते या नहीं।
खैर आरके बैनर 1949 में अस्तित्व में आया जब राजकपूर अपने आरके बैनर के लिए शैलेंद्र, शंकर जयकिशन, मुकेश, और हसरत जयपुरी के साथ गीत और संगीत की एक ऐसी न थमने वाली 'बरसात' लेकर आए जिसे सुन सुन कर श्रोता आज तक भीग रहे हैं। एक बात और बता दूं कि इप्टा के लिए 'धरती का लाल' जैसी स्क्रिप्ट लिखने वाले ख्वाजा अहमद अब्बास फिल्म आवारा (1950) से आरके बैनर के साथ हुए। बरसात से ही शुरू किया राजकपूर ने टाइटिल यानी शीर्षक गीत का प्रचलन। और हिंदी फिल्मों का पहला शीर्षक गीत 'बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम' को शैलेंद्र ने ही शब्दों में पिरोया।
महान गीतकार शैलेंद्र की जयंती (30 अगस्त) पर विशेष
(लेखक: वरिष्ठ पत्रकार अजीत कुमार सिनेमा और संगीत के गहन अध्येता हैं| विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सम-सामयिक विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं।)