गैर-मुस्लिम बच्चों को भी दी जा रही इस्लामी तालीम, NCPCR ने सुप्रीम कोर्ट में मदरसों की शिक्षा का किया विरोध
NCPCR ने एक याचिका में सुप्रीम कोर्ट में अपनी दलील दी है कि मदरसों में बच्चों को जरूरी शिक्षा से वंचित रखा जा रहा है। NCPCR मदरसों की शिक्षा का कड़ा विरोध भी किया है।
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग यानी NCPCR ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल लिखित दलीलों में मदरसों में मिलने वाली इस्लामी शिक्षा का विरोध किया है। NCPCR ने कहा है कि मदरसों में बच्चों को औपचारिक, क्वालिटी एजुकेशन नहीं दी जा रही है। आगे कहा कि शिक्षा के लिए ज़रूरी माहौल और सुविधाएं देने में असमर्थ मदरसे, बच्चों को उनकी अच्छी शिक्षा के अधिकार से वंचित रख रहे हैं।
यूपी मदरसा एक्ट को लेकर कोर्ट में केस पेंडिंग
NCPCR ने अपनी यह दलीलें यूपी के मदरसा एक्ट को असंवैधानिक घोषित करने के इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिका को लेकर दी है। एक मदरसे के मैनेजर अंजुम कादरी और बाकी लोगों की ओर से दायर इस याचिका में हाईकोर्ट के फैसले पर सवाल उठाते हुए इसे मनमाना बताया गया है। मार्च में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले पर अंतरिम रोक लगा दी थी जिसके चलते मदरसा एक्ट के तहत मदरसों में पढ़ाई अभी हो रही है। अब आगे सुप्रीम कोर्ट को मदरसा एक्ट की संवैधानिकता पर सुनवाई करनी है। 11 सितंबर को भी सुप्रीम कोर्ट में इस मामले सुनवाई करेगा।
मदरसों का ज़्यादातर जोर धार्मिक शिक्षा पर
NCPCR ने कोर्ट से कहा कि मदरसे चूंकि शिक्षा के अधिकार क़ानून के तहत नहीं आते हैं, इसलिए इनमें पढ़ने वाले बच्चे न केवल बाकी स्कूलों में मिलने वाली औपचारिक, जरूरी शिक्षा से वंचित रहते हैं, बल्कि उन्हें RTE एक्ट के तहत मिलने वाले अन्य फायदे भी नहीं मिल पाते। इन बच्चों को मिड डे मील, यूनिफॉर्म और स्कूल में पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित शिक्षकों जैसी सुविधाएं नहीं मिल पाती। मदरसों का ज़्यादातर जोर धार्मिक शिक्षा पर ही होता है, मुख्य धारा की शिक्षा में उनकी भागीदारी काफी कम ही होती है।
दी जा रही गैर-मुस्लिम बच्चों को भी इस्लामी शिक्षा
कमीशन को मिली जानकारी के अनुसार, यूपी, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल में बहुत सारे मदरसों में इस्लाम के अलावा बाकी धर्मों के बच्चे भी पढ़ रहे हैं। ऐसे में गैर-मुस्लिम बच्चों को भी इस्लाम की परम्पराओं की शिक्षा दी जा रही है, जो कि आर्टिकल 28(3) का उल्लंघन है। आयोग ने कहा कि उसने मदरसा बोर्ड के सिलेबस को देखा है, उसमें कई आपत्तिजनक बातें भी शामिल हैं। मदरसा बोर्ड उन किताबों को पढ़ा रहे हैं जो सिर्फ इस्लाम के श्रेष्ठ होने की बात करते हैं।
शिक्षकों की योग्यता पर किए सवाल
आयोग ने कोर्ट से लिखित दलीलों में कहा कि मदरसों में पढ़ाने वाले शिक्षकों की नियुक्ति मदरसों के अपने मैनेजमेंट द्वारा की जाती है। ऐसे में कुछ मामलों में तो उनके पास शिक्षक बनने के लिए ज़रूरी क्वालिफिकेशन भी नहीं होती, पर उन्हें नियुक्ति मिल जाती है। वहीं, नियुक्ति के वक़्त शिक्षकों की योग्यता कुरान और धार्मिक ग्रंथों की समझ से परखी जाती है। शिक्षा के अधिकार क़ानून में शिक्षकों की योग्यता, उनकी ड्यूटी, छात्रों-शिक्षकों के अनुपात का भी जिक्र है, लेकिन इस क़ानून का मदरसे में अमल न होने के चलते बच्चे नाकाबिल शिक्षकों के जरिए पढ़ने को मजबूर हैं।
दारुल उलूम के फतवों का जिक्र
आगे कहा कि दारुल उलूम की वेबसाइट पर एक फतवा पाकिस्तान के रहने वाले एक शख्स के सवाल पर जारी किया गया था, जिसमें उसने गैर मुसलमानों पर आत्मघाती हमले के बारे में सवाल पूछा था। उस सवाल पर दारुल उलूम देवबंद ने जो जवाब दिया वो नाकाबिले बर्दाश्त है, दारुल उलूम ने अपने जवाब में सवाल को गैर कानूनी बताने की बजाय यह कहा कि 'अपने स्थानीय जानकार से उसके बारे में मशविरा करें'।
आयोग के मुताबिक, दारुल उलूम देवबंद की तरफ से जारी इस तरह के बयान न केवल गैर-मुसलमानों पर आत्मघाती हमले को सही ठहरा रहे हैं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी खतरा पैदा कर रहे हैं। इसी तरह दारुल उलूम का फतवा गजवा ए हिंद की बात करता है। कमीशन का कहना है कि दारुल उलूम इस्लामी शिक्षा का केंद्र होने के कारण इस तरह के फतवे जारी कर रहा है जिससे बच्चों में अपने ही देश के खिलाफ नफरत की भावना से भर रहा है।
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