दिल्ली हाईकोर्ट का आदेश, कहा- 'फीस नहीं चुका पाने पर छात्र को सेशन के बीच में एग्जाम देने से नहीं रोक सकते'
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि शिक्षा एक महत्वपूर्ण अधिकार है और फीस का भुगतान न कर पाने की वजह से किसी छात्र को कक्षाओं में भाग लेने या मिड-सेशन की परीक्षा देने से रोकना गलत है।
दिल्ली हाईकोर्ट ने गुरुवार को कहा कि शिक्षा एक महत्वपूर्ण अधिकार है और फीस का भुगतान न कर पाने की वजह से किसी छात्र को कक्षाओं में भाग लेने या मिड-सेशन की परीक्षा देने से रोकना गलत है। कोर्ट की यह टिप्पणी दिल्ली के एक प्राइवेट गैर-सहायता प्राप्त स्कूल के 10वीं कक्षा के एक छात्र की याचिका पर आई, जिसका नाम फीस का भुगतान न करने के कारण हटा दिया गया था और जिसने आगामी CBSE बोर्ड परीक्षाओं में बैठने की अनुमति देने की मांग की थी।
याचिका पर "दयालु और सहानुभूतिपूर्ण विचार" करते हुए, जज मिनी पुष्करणा ने कहा कि किसी छात्र को एग्जाम देने की परमिशन नहीं देना, विशेष रूप से बोर्ड परीक्षा, जीवन के अधिकार के समान उसके अधिकारों का उल्लंघन होगा। इसलिए, कोर्ट ने निर्देश दिया कि छात्र को बोर्ड की परीक्षा देने की अनुमति दी जाए।
'फीस देने में असमर्थ था छात्र'
याचिकाकर्ता ने दावा किया कि वह कोविड लॉकडाउन के बाद अपने पिता को हुए आर्थिक नुकसान के कारण नियमित रूप से अपनी स्कूल फीस का भुगतान करने में असमर्थ था। कोर्ट ने कहा कि यदि याचिकाकर्ता फीस का भुगतान करने में असमर्थ है, तो उसे "निश्चित रूप से स्कूल में शिक्षा जारी रखने का अधिकार नहीं है" लेकिन उसे शैक्षणिक सत्र के मध्य में इस तरह से प्रताड़ित नहीं किया जा सकता।
छात्र को इतने रुपये का करने होगा भुगतान
दोनों पक्षों के हितों को बेलेंस करने के लिए, कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता को स्कूल को देय शुल्क के लिए कुछ राशि का भुगतान करना चाहिए। कोर्ट ने छात्र को चार सप्ताह के भीतर स्कूल को 30,000 रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया। अदालत ने इस सप्ताह पारित एक आदेश में कहा "शिक्षा को अनिवार्य रूप से एक धर्मार्थ वस्तु, समुदाय के लिए एक प्रकार की सेवा के रूप में माना गया है। एक बच्चे को फीस का भुगतान न करने के आधार पीड़ित नहीं बनाया जा सकता है और न ही किसी शैक्षणिक सत्र के बीच में परीक्षा देने से रोक दिया जा सकता है।"
आर्टिकल 21 का उलंघन
अदालत ने कहा, "शिक्षा वह नींव है, जो एक बच्चे के भविष्य को आकार देती है और जो सामान्य रूप से समाज के भविष्य को आकार देती है। इसलिए, एक छात्र को परीक्षा, विशेष रूप से बोर्ड परीक्षा देने की अनुमति नहीं देना, भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन के अधिकार के समान बच्चे के अधिकारों का उल्लंघन होगा,"
कोर्ट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत अधिकारों का विस्तार किया है और शिक्षा "निश्चित रूप से महत्वपूर्ण अधिकारों में से एक है जिसे जीवन के अधिकार के तहत शामिल किया जाएगा"। स्कूल ने अदालत को बताया कि 3 लाख रुपये से अधिक की कुल फीस की एक बड़ी राशि न केवल याचिकाकर्ता बल्कि उसकी बहन को भी देय थी, जो पिछले शैक्षणिक सत्र में पास हो गई थी। एक निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूल होने के नाते, यदि छात्र नियमित रूप से अपनी फीस का भुगतान नहीं करते हैं, तो स्कूल के लिए शिक्षा प्रदान करना संभव नहीं था।
'भारतीय समाज में बोर्ड की परीक्षाएं महत्वपूर्ण होती हैं'
अदालत ने कहा कि भारतीय समाज में बोर्ड की परीक्षाएं महत्वपूर्ण होती हैं और याचिकाकर्ता का शैक्षणिक वर्ष बर्बाद नहीं होने दिया जा सकता। अदालत ने कहा कि भारतीय समाज के संदर्भ में, कक्षा 10वीं और कक्षा 12वीं की बोर्ड परीक्षाएं बेहद महत्वपूर्ण हैं, जिनका निर्णायक प्रभाव पड़ता है और एक छात्र के भविष्य पर असर पड़ता है"।
कोर्ट ने कहा "याचिकाकर्ता को नए स्कूल में प्रवेश लेने के लिए निर्देशित नहीं किया जा सकता है जब वर्तमान शैक्षणिक सत्र लगभग समाप्त हो गया है और बोर्ड परीक्षाएं नजदीक हैं। याचिकाकर्ता को बोर्ड परीक्षा में बैठने की अनुमति नहीं देने से याचिकाकर्ता को बड़ी कठिनाई होगी और याचिकाकर्ता को परीक्षा में बैठने की अनुमति नहीं देने पर अपूर्णीय क्षति होगी।"